Saturday, August 27, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य 'मुखबन्ध'- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini 'Preface')

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem

By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


= = = = = = = = = = = = = =
Tapasvini [Preface]
= = = = = = = = = = = = = =

['Preface' has been taken from page-28 of my Hindi 'Tapasvini' Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
= = = = = =


‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


= = = = = = = = = = = = = = = = = =
मुखबन्ध
(मूल ओड़िआ का हिन्दी रूपान्तर)
= = = = = = = = = = = = = = = = = =

पितृ-सत्य की रक्षा के लिये वनवासी होने से श्रीराम का, और स्वामी की अनुगामिनी होने से सीता का, जो माहात्म्य व्यक्त हुआ था, सीता के निर्वासन से वह सौरभमय हो गया । निर्वासन-कष्ट सहने से सीता की पतिभक्ति जिस तरह तेजोमयी हो गयी, उनकी स्वर्णमयी प्रतिमा की स्थापना पूर्वक अश्वमेध यज्ञानुष्ठान करने से श्रीराम का पत्नी-प्रेम उसी तरह दीप्तिमान् हो उठा । उपयुक्त पति की उपयुक्त पत्नी । मिथ्या अपवाद के कारण सीता स्वामी द्वारा परित्यक्ता हुई थीं; फिर भी स्वामी के हार्दिक प्रेम को यथार्थरूप से समझ सकी थीं । निर्वासन को अपना भाग्य-दोष मानकर उन्होंने पतिभक्ति को कैसे दृढ़तर और उच्चतर किया था, वनवास को पति की कल्याण-साधिनी तपस्या में परिणत कर तपस्विनी के रूप में कैसे दिन अतिवाहित किये थे, उसी विषय को प्रकट करना इसी पुस्तक का प्रधान उद्देश्य है ।

सीता ने जिस प्रकार स्वामी की करुणा प्राप्त करने की आशा त्याग दी थी, मैंने उसी प्रकार उनके ऊँचे चरित्र को प्रकट करने में सफल होने की आशा छोड़ दी है । तब श्रीराम ने तपस्विनी सीता के स्थान पर हृदय की चाँदनी को मनोहारिणी मूर्त्ति बनाकर यज्ञ संपन्न किया था । विद्वान् पाठकगण, इसमें मेरे कृतित्व को लक्ष्य न करते हुए अपने अपने हृदय में स्थित सीता के उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र चरित्र से चित्रित स्मृतिपट का एक एक बार उद्घाटन करके नारी-हृदय की उन्नति विधान करेंगे, केवल इतनी ही आशा है ।

उपसंहार में वक्तव्य यह है कि मेरे प्रिय सुहृद् श्रीयुत ब्रजमोहन पण्डा ने इस पुस्तक के प्रणयन के लिये मुझे जो ओजस्वी उत्साह प्रदान किया है, वह सर्वथा अतुलनीय है । मैं इसलिये उनके प्रति गभीर कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । इति ।

विनीत
श्रीगंगाधर मेहेर
पद्मपुर
दिनांक : ५-१०-१९१४
= = = =



[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *


No comments:

Post a Comment