Wednesday, August 31, 2011

तपस्विनी- काव्य तृतीय सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Canto-3)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-3]
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[Canto-3 has been taken from pages 63-77 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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तृतीय सर्ग
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भागीरथी-तट पर लक्ष्मण
वैदेही को जब त्याग चले,
ससिन्धु वसुन्धरा में खरांशु-किरण
फैली थी विमल गगन के तले ॥

राम-रमणी की दुर्दशा देवराज्य को होगी दृश्य
तो लज्जा लगेगी अवश्य,
दिवाकर ने करके इस बात का ध्यान
मानो दी वह धवल जवनिका तान ॥

इस रहस्य को जानकर
बाहर दिखलाने दोष अंशुमान्-वंश का,
प्रदोष ने उठा दी सत्वर
धरा-पृष्ठ से वही जवनिका ॥

जब पुकारने लगे विहग
गगन-आंगन में ताराएँ जग
आकर एक के पीछे एक
सम्मिलित हो गयीं अनेक ॥

देखा, बैठे हैं एकाकी विजन में
विस्तृत आंगन में,
साश्रु-लोचन उदास-वदन
अंशुमान्-वंशी रघुनन्दन ॥

सोच रहे थे रघुवर :
‘राज-अधिकार है महादासत्व का बहाना ।
आसीन हो इस ऊँचे पद पर
प्रजा-चरणों में होता कष्ट ही उठाना ॥

जब मिल शत-शत जन
कहते मिथ्या वचन,
उसे मिथ्या जान भी उन्हें मान सर्वथा
बोली जाती उसे सत्य कथा ॥

प्रजा के शान्ति-याग में बलि हो जाता
राजा का सुख स्वाभाविक ।
दृढ़ धर्म-रज्जु से बँधा नरेश्वर
अपने कार्य में तनिक
हो नहीं पाता
एक पग भी अग्रसर ॥

किया जाता जो अभिषेक मंगल,
वह तो प्रोक्षण है केवल ।
चामर डुलाना, और क्या कहा जाय
मक्षी भगाने के सिवाय ?

सुख में निराशा नहीं रहती होगी कभी
देवता के हृदय में भी ।
इसलिये राजा है महान् देवता,
यश-पीयूष का सेवन करता ॥

प्रजा-रुधिर तो बिन्दु-बिन्दु जल ;
प्राप्त कर ऊँचा आसन
नरेश बन जाता बादल
करने प्रजा का कल्याण साधन ॥

धरती के जल में
वज्र नहीं रहता,
परन्तु बादल में
स्वभाव से ही रहता ।
प्रजा-कर-दण्ड
होता नहीं प्रचण्ड,
वह प्रचण्ड होता आकर
राजा के कर ॥

शम्पा की आग से भले
अपना हृदय जले,
दान करने उदक
बाध्य हो जाता बलाहक ॥

सुख त्याग कर सब
शासक नरेश्वर जब
प्रजा-मन में सन्तोष जगाता,
तब वह परम-पूज्य बन जाता ॥

महीमण्डल में राजपद सचमुच
स्वर्ग-सोपान का मस्तक समुच्च ।
यदि राज्य का अधीश्वर
अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता,
तभी गभीर अधोगति पाकर
निश्चित नष्ट हो जाता ॥

ऐन्द्रजालिक समान
एक दण्ड पकड़ विद्यमान,
समभाव-सम्पन्न समदृष्टि डाल
राजत्व की डोरी पर नरपाल
स्वीकार कर सरलता,
अपने जीवन का विषय नहीं सोचता ॥

चरण स्थापित कर डोरी पर
मायाकार यदि होगा नहीं अग्रसर,
कुछ हँसी उड़ायेंगे बजा तालियाँ,
देगा वाद्यकार भी गालियाँ ॥

प्रेयसी-विरह से शिथिल कर जीवन अपना
यदि न रहूँगा मैं कर्म-तत्पर,
तब मनुष्य-समाज मुझ पर
बरसाएगा और भी भर्त्सना ॥

कहेगा संसार :
‘रामचन्द्र है कुलांगार,
रघुकुल में ले जनम
उसने विचार-कृपण बन
त्याग दिया अपना राजपन
वधू के वश में स्वयम् ॥’

उत्तम वानप्रस्थाश्रम का आश्रय,
परन्तु आया नहीं मेरा समय ।
फिर मेरे कार्य में व्रती रहने भरत
कैसे होगा सम्मत ?

अंक की वस्तु में घट जाती प्रीत
उसे नित-नित बारबार देखकर ।
अंक हो जाता जब शून्य प्रतीत,
तब अंक में शून्य लगाने पर
बहुगुणित होता जितना,
हृदय की प्रीत बढ़ जाती उतना ॥

अमर नहीं स्थूल तन,
अमर होता केवल मन ।
मन में संग जब
नहीं टूट जाता,
वही सुख ही तब
सच्चा सुख कहलाता ॥

दुनिया में पार्थिव वैभव से पला
कौन चिरन्तन रहता भला,
बाँध कनक-किरीट शीश विभूषित ?
यश और अपयश
न होकर काल-वश
उसके प्रतिवादी बन जाते निश्चित ॥

क्या स्वर्ग, क्या नरक,
हैं उनके गति-निर्णायक
स्वभाव से दुनिया के लोग ।
लोगों की बातें ठुकरा नीच मन
पाने अनित्य सुखभोग,
उसकी खोज में हो जाता मगन ॥

घर में नहीं तो क्या ?
मेरे हृदय के प्रेम-सरोवर में निकली
खिली है मेरी प्रिया
अमल कमल-कली ।
मानस-भ्रमर सानन्द
लूट रहा है मकरन्द ॥

तरसे हुए अरे नयनो !
क्यों पानी छोड़ रहे हो तुम दोनों ?
यदि सूख जाएगा सरोवर में पानी,
डगमगाएगी मेरी पद्मिनी रानी ॥

अरे वक्ष ! बन प्रस्तर का बाँध शक्तिशाली
तू बन्द कर दे नयनों की जल-नाली ।
अरे नासा-समीरण !
तू घना होकर न चल,
मेरे जीवन की शरण
काँप उठेगी विह्वल ॥

आयेगा लक्ष्मण,
बताएगा प्राण-संगिनी की बातें सारी ।
अरे दोनों श्रवण !
चञ्चल न हो, सब सुनोगे,
फिर त्याग दोगे
व्यथाएँ भारी ॥

अरे सन्तप्त चर्म !
हर लेगा तेरा स्वेद-नीर,
समीरण बहने लगा ।
व्यथाहारिणी पद्म-सौरभा सुभगा
प्रिया के कलेवर का सुगन्ध मनोरम
आहरण करके धीर-धीर ॥

कहता हूँ और एक बात ;
तुमलोग मन के साथ
सब सम्मिलित होकर
चलो हृदय-सरोवर ।
उधर अनन्त दिनों तक
रमते रहोगे रस-रंग में अथक ।
वहाँ खिली है नयी पद्मिनी
मेरी जीवन-संगिनी ।
स्मरण का सूरज वहीं सदा जगमगाता,
अस्त कभी नहीं जाता ॥

अरी रसना ! मेरी मान, वहीं मत रस,
तूने खाई है प्रजा की सम्पत्ति ।
जिसके धन से तू पली बस,
उसके नाम चलने न कर कोई आपत्ति ॥

विधान है दुनिया में जन-कल्याण साधन,
इसी कारण बचा है मेरा जीवन ।
अन्यथा क्यों भला
वज्र को पिघला
कर लेता पान
घृत के समान ?

मुक्त कर दूँगा शुक-सारी युगल,
पिञ्जरे से जाएंगे निकल ।
बीतने दो रयना;
तुझमें जगाने उत्तेजना
वे करेंगे नहीं पुनर्वार
‘सीता’ नाम उच्चार ॥

उस लाक्षारञ्जित-पदा के पास
चला जाएगा मृग-छौना ।
लाक्षा-रेखा है उसके गले का फाँस,
रंगीन पाट डोरी से बना ॥

केका-रव करके निरर्गल
क्यों रहेंगे फिर मयूर-युगल ?
किसका अनुकरण कर बोलेगा भीमराज ? [१]
उसे भी जाने दो आज ॥

कहाँ गौरव पाएगी वीणा,
मेरी संगीत-प्रवीणा
प्रिया के कण्ठ-संग बिना ?
वीणा यह जानकर
अपना भाग्य-दोष मानकर
रहेगी स्वर-हीना ॥’

तदुपरान्त नयन मूँद पलभर
चढ़ चिन्ता-शैल-शिखर
देखा राम ने, काल-प्रवाह भयंकर
तीव्र गति से है अग्रसर ॥

उसके गभीर गर्भ में उगकर
विलीन हो रहे समस्त चराचर ।
बुद्बुद की भाँति क्षणभर कोई रहता,
फिर कोई कुछ दिन ठहरता ॥

उस प्रबल वारि-धार में यश-पर्वत
उठा अपना शीश उन्नत
संकट की गिनती न कर
अटल खड़ा है चूम अम्बर ॥

उस पर्वत के सानु-देश में सती नारियाँ
ज्योतिर्मय वेश-सज्जित,
विहर रहीं स्व-स्व पति संग ले खुशियाँ
युग-युग युगल-भावान्वित ॥

पङ्क्ति-बद्ध सुन्दर
वहीं विराजित कई नरेश,
रत्नमय सिंहासन पर
दिव्य कुसुमालंकारों से भव्य वेश ॥

है जिनकी तनु-तरी
असाध्य-साधन-प्राप्त पुण्य-धन से भरी,
उन्हें ले रहे हैं हाथ पकड़ सादर
पर्वतवासी कविगण आकर ॥

कुछ दुराचारी धर्म न विचार
बलपूर्वक वहीं चढ़ चञ्चल,
पाकर कवियों के वज्रतुल्य मुष्टि-प्रहार
रहते अत्यन्त कष्ट से विकल ॥

आखें खोल सहसा राम ने
निहार उन लोगों की दुर्दशा इस प्रकार
अवलोकन किया सामने,
वसुन्धरा में परिव्याप्त है अन्धकार ॥

झिलमिल तारकाएँ सजाकर नील गगन
चमकाती रहीं अपने उज्ज्वल वदन,
परन्तु उपस्थित नहीं उधर
प्रियतम कलाकर ।
फिर भी उन सबका आनन्द
चल रहा अप्रतिबन्ध ॥

बोले रघुवर :
‘हे तारकागण !
चन्द्र की प्रीति-कारा के बन्धन में
ग्रस्त न होकर
विधि का विधान
तुमलोग मान
करती हो एकाग्र मन में
शिशुमार भ्रमण ॥

प्रियतम-विरह-व्यथा
दुर्विषह होने पर भी सर्वथा
दुनिया के लिये बिसर
समस्त दुःखभार,
कान्ति वितरने रहती हो तत्पर
अपने कर्मानुसार ॥

सिखला दो धर्मदीक्षा तुम्हारी
चलकर वाल्मीकि-आश्रम शीघ्र ही,
मेरे हृदय की चाँदनी प्यारी
अकेली बैठी रही,
नयनों से बरसाती होगी अश्रु-जल
मुझे ध्यान कर पल-पल ॥

बेला में इस निशा की
यदि रोती रहेगी व्याकुल-हृदया चक्रवाकी,
मेरी करुणामयी प्रिया खोकर चेतना
बचा नहीं पायेगी जीवन अपना ॥

दिखलाकर सरोवर
कुमुदिनियों का दोगी दृष्टान्त ।
सम्हालतीं अपना जीवन उधर
यद्यपि उगा नहीं प्रिय निशाकान्त ॥

पुनर्मिलन का विषय मेरी प्रिया
समझेगी नहीं विषम समस्या ।
हृदयों का मिलन
अत्यन्त मनभावन ।
तुम सभी तो जानती हो इसी को,
समझा दोगी प्रेयसी को ॥

इस विषय पर
पाएगी नहीं अवसर
मेरी सरोज-नयना प्रिया संशय का ।
तुमलोग निश्चित बतला दोगी
मेरा समस्त भाव हृदय का ।
देख तो रही हो, साक्षी बन जाओगी ॥

और भी प्रिया के गर्भ में ओतप्रोत
बह रहा है मेरी आत्मा का स्रोत ।
यह बात जब कहोगी तुम सभी,
इसे कदापि व्यर्थ नहीं बोल पायेगी वल्लभी ॥’

इसी से श्रीराम-हृदय को स्पर्श करने
क्या लाघव था समर्थ ?
दृष्टि-मार्ग पर बिछा तिमिर घने
तारकाएँ निहारने लगीं व्यर्थ ॥

न समझ गुणी का सद्गुण
जब कोई दोष देखने बन जाता निपुण,
उस दोषदर्शी की ऊँची स्थिति पर अपनी
होती विधि-कृत बड़ी विडम्बना भोगनी ॥

तारकाओं की थी भावना,
राम का दोष देख प्रसन्न करेंगी मन अपना ।
परन्तु निहार उनके हृदय की ऊँचाई
सबने शीश झुका अधोगति पाई ॥

श्रीराम का दुःख देखने विमुख होकर
उगे नभ में खेद-खण्डित-हृदय कलाकर,
यामिनी के आगमन पर
त्याग क्षीर-सागर ॥

उपहास-पूर्वक चक्रवाक की ओर
पुकारने लगा चकोर :
‘चिन्ता मत कर, चिन्ता मत कर,
तेरे ललाट-पट पर
लिखा गया है सही
केवल उपवास ही ॥’

वह कहेगा नहीं क्यों भला ?
दैव ने तो उसके मुख अमृत है डाला ।
उल्लसित-अन्तर बजाते ताली
दूसरों की विपत्ति देख वैभवशाली ॥

इधर सोच रहीं पिछली बातें मन-ही-मन,
मणि-रमणीय भवन,
गजदन्त-खचित शयन सुन्दर,
आडम्बर भरपूर
सब सुख त्याग बहुत दूर,
पूर्व-परिचित पत्र-निर्मित कुटीर के अन्दर
मृगचर्मासन-समासीन जानकी
विरहिणी गृहिणी श्रीराम की ॥

प्रियतम की प्यारभरी बातें मधुर
छेड़ रहीं निर्मल सुर
हृदय-फोनोग्राफ के भीतर
अपने आप प्रवेश कर ॥

सकल-भय-मोचन सुरुचिर सरल
मरकत-कान्तिमय बाहु-युगल
आन्तरिक ध्यान में अपने
स्पष्ट दीख रहे सिर के सामने ॥

रघुनन्दन के प्रियभाजन
विश्वस्त प्रहरी बन
निद्रा त्याग लक्ष्मण वीर
जैसे रहते साथ,
वैसे ही अपने हाथ
ले धनुष तीर
दृश्य हुए अदूर उसी क्षण में
स्मृति के दर्पण में ॥

उन्हें त्याग चुके हैं स्वामी और देवर,
इसी विषय सोचने पर
म्लान नयन बरसाने लगे जल,
जैसे तुषाराप्लुत कमल ॥

खाकर कई प्रहार
खर्जूर-ग्राही के हाथ से
छोड़ता रस जिस प्रकार
खर्जूर-तरु मौन अचल,
हो गयी क्षोभ-आघात से
सती की अवस्था अविकल ॥

इस तरह प्रिय प्रिया दोनों बारबार
स्मरण कर एक दूजे की भावराशि प्यारभरी,
बैठ दुःखासन पर ले धैर्य-तलवार
काट रहे थे सारी शर्वरी ॥

आत्मा-शिर-क्लान्ति से निकल
अविरल झर-झर,
पक्ष्म-गुल्मों को प्रक्षाल स्वद-जल
प्लावित करता रहा कपोल-परिसर ॥

चीत्कारने लगी निशा
उलूक-वेशा ।
धीरे-धीरे क्षीण हो चला जीवन ।
नभ में करके रुधिर प्लावन
किसी प्रकार बच गयी निशीथिनी
बनकर पलायन-पन्थिनी ॥

प्रेमिक-प्रेमिका-चरणों तले
करके अपना अहंकार विक्रय,
प्रसून-वेश ले
भूमि पर गिरी
तारकायें सारी
ढूँढने लगीं आश्रय ॥

त्याग समस्त छल अपने
शरण-वत्सल रघुवर ने
प्रतिष्ठित रखा उन्हींका सम्मान ।
साथ-साथ किया वर प्रदान,
‘तुम्हें युग-युगान्तर
स्थान प्राप्त होगा शीश पर ॥’

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[पादटीका :
(१) भीमराज = नाना-स्वनकारी पक्षीविशेष ।
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(तपस्विनी काव्य का तृतीय सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

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‘तपस्विनी’ काव्य द्वितीय सर्ग- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Canto-2)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)

Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-2]
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[Canto-2 has been taken from pages 47-62 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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द्वितीय सर्ग
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वाल्मीकि-आश्रम-राज्यभर
व्याप्त था शान्ति-रानी का राजत्व सुन्दर ।
तरु-दत्त उत्तम छाया-करों से सर्वथा
कोष उसका परिपूर्ण था ॥

निष्कपट-अन्तर
वे पादपगण छाया-कर
प्रदान करते अयाचित
अपने तनु-मापदण्ड के अनुरूप निश्चित ॥

प्रकृति के रण में निर्भीक
वे फिर बनते हैं सैनिक,
गहन पत्र-कवच लेकर
आच्छादित करके कलेवर ॥

वर्षा के व्यायाम से भर
अपने अंगों में पुष्टि-शक्ति,
आतप को परास्त कर
छीन ले आते रश्मि-सम्पत्ति ॥

शीत के आक्रमण से ये
राज्य-रक्षा के लिये
धुनि-रूप में उधर
कुछ बन जाते अग्नि-शर ॥

पराजित प्रकृति उचित समय जान
करती सन्तोष विधान,
वृक्षों के हाथ सौंप अपार
फल-पुष्प-कोष सम्भार ॥

प्रत्येक शिशिर-कण
करता अगस्त्य का गौरव शोषण,
अपने गर्भ में धारण कर
तारा-रत्न-पूरित अम्बर-सागर ॥

तरु-आलबाल का उदक उधर
अपनाकर रत्नाकर का गर्व विशाल,
रखता रहा अपने उदर
सुधांशु-मण्डल को पाल ॥

वहाँ अचानक चली आई
श्रीराम-वधू की रुलाई ।
शान्तिदेवी का आगार
डगमगा दिया बारबार ॥

शान्ति करुणामयी
विचलित हो गयी ।
ढूँढा वाहन अपना सत्वर
चलने रोदन-रता को लक्ष्य कर ॥

मुनिकन्याएँ बाहर निकल
लग गयी थीं उसी पल,
तत्त्वावधान करने नव तरु-लताओं का,
जो अस्तव्यस्त थे पाकर मरुत का झोंका ॥

श्रुति में कन्याओं की जब समा गयी
आकर एक ध्वनि नयी,
उसे पकड़ पहचानने
मनोनिवेश किया सबने ॥

उसे पकड़ मानस ने देखा चुन :
न वह कबूतर की बोली,
न कूक कोयल की निराली,
न वीणा की धुन,
न कम्बु-स्वन, न फिर मयूर-केका,
वह तो किसी रमणी के करुण गले का
झर रहा है स्वर
शोक-जर्जर ॥

उन कन्याओं के हृदय-स्यन्दन पर
स्वयम् अधिरूढ़ होकर
शान्ति ने तुरन्त किया चालन,
फहरने लगा वल्कलाञ्चल-केतन ॥

चकित हो गयी शान्ति तभी
निहार लहरें रुलाई की ।
निकट चलने फिर भी
तनिक-भी अवहेला नहीं की ॥

आगे चल व्यग्र-मन
कन्याओं ने अनतिदूर में किया अवलोकन,
बरसा रही लोतक-नीर भारी
एक अपूर्व नारी ॥

किसी ने सोचा साश्चर्य मन में :
‘विचित्र तो बात यही ।
कभी सम्भव नहीं इसी कानन में
इस-जैसी मानव-देही ॥

कोई देवी स्वर्गधाम से
क्या सद्य अभिशाप-परिणाम से
आ गिर पड़ी है सशरीर
धरातल पर अधीर ?

क्या चढ़कर ऐरावत करी
इन्द्रभुवन-सुन्दरी
अम्बर में करते करते भ्रमण
भूपतिता हुईं इसी क्षण ?’

सोचने लगी अन्य कोई मुनि-दुहिता :
‘क्या यह मूर्त्तिमती सुर-सरिता
अश्रु-तरंगों से अपनी
प्लावित कर रहीं अवनी ?

क्या करका-सी करुणा स्वर्ग से टपक
अन्य के दुःख-ताप से अचानक
जा रही पिघल
धीरे-धीरे आ धरातल ?

नहीं तो, घन-कुन्तला यही,
लेकर बलाहक
तारा आने से खिसक
धरा पर धारा बह रही ॥

ध्वनि रुलाई की होती यदि चौंकभरी,
हम कहते, मेघ संग शम्पा है उतरी ।
कहाँ कोयल की बोली से सुहावनी
ओस-बरसानेवाली चाँदनी ?
कहाँ झिल्ली-झाँझ से भरी
ग्रीष्म की धूप गहरी ?

हाथों में यदि वीणा रहती,
हम कहते, देवी सरस्वती
विलप रही हैं इस तरह से
तड़पकर विष्णु के विरह से ॥’

मुनिकन्याएँ करके ऐसी भावना
पहुँच गयीं सीता के निकट,
परन्तु प्रदान करने सान्त्वना
किसीका न हुआ साहस प्रकट ॥

प्रबल वृष्टि से महानदी का गहरा सलिल
जब हो जाता आविल,
उसे कैसे भला
निर्मल कर सकती निर्मला ? (१)
इब,अंग और तेल नदियों के संग
जैसे बढ़ती महानदी की धार,
मुनि-कुमारियों के संग
बढ़ने लगी सीता की वेदना उसी प्रकार ॥

कुछ न पूछ वैदेही से
घिर गयीं कुमारियाँ सारी ।
कोई भी जा न सकी वहीं से,
स्नेह बन गया पाँव की बेड़ी भारी ॥

सीता की ओर करके विकल निरीक्षण
कुमारियों से शान्त नयन उसी क्षण
छोड़ने लगे प्रबल
क्षुब्ध हृदय की व्यथा-लहरों का जल ॥

साश्रु-लोचना कुमारियों के बीच वहीं
सकरुण स्वर विलपती
शोक-सलिल में बह रहीं
राम-प्रिया सीता सती ।
चक्रवातज सीकर-सिक्त नलिनी-वन में तरसी
कूजती रही क्या करुण-स्वना राजहंसी ?

करुण रुलाई उनकी
कोई आली झेल न सकी ।
महर्षि वाल्मीकि के पास चल
बोली वचन स्वेदभरा व्यथा-चञ्चल ॥

‘तात ! इसी कानन में
दीखती है कोई नारी
नवनीत की पुतली-सी,
आकर रो रही पगली-सी ।
अपने प्रिय स्वामी को पुकार
वही बारबार
एकान्त में स्मरण कर रही मन में
पति की गुणावली और वत्सलता सारी ॥

दीखती उसके ललाट पर
सिन्दूर की बिन्दी सुन्दर,
वदन-अरविन्द को वही
पूनम के चाँद-सी भाती रही ॥

हस्त-युगल में खनकी
सुहावनी लगतीं चूड़ियाँ रत्न की ।
विषाद-पारावार के पुलिन पर
चमकतीं वहाँ न डूबकर ॥

अधखिले कमल में वराटक समान
अरविन्दाभ सुन्दर वस्त्र से वह शोभायमान ।
आँसुओं ने कर दिया
आर्द्र उसीका परिधान,
वह मानवी या देवी स्वर्गीया,
सरल नहीं पहचान ॥’

यह श्रवण कर तपोधन
मौन मुद्रित-नयन,
बैठे रहे एक पल
रख काय मस्तक ग्रीवा सरल ॥

उठ फिर निकल पड़े
‘चलो देखेंगे’ कहकर ।
कई मुनिकुमार चल पड़े
उनके पीछे-पीछे सत्वर ॥

जो मुनिकन्याएँ थीं आश्रम के भीतर,
चलीं सब उत्सुक-अन्तर,
बनकर उस सखी के साथी
जो बुलाने आई थी ॥

चले कुरंगी कुरंग,
उनके शावक भी संग-संग ।
तरु से तरु कुद-कुद चले चञ्चल
कई मयूर कोकिल बक दल ॥

पवन-पारावार में लगे खेने
कलेवर-पोत अपने अपने
नेत्र-रञ्जन खञ्जन विहंग
कपोत, शुक सारिकाओं के संग ॥

शान्ति की इस वीर-वाहिनी ने
किया सबल अभियान,
सीता के शोक-प्रस्तर-समूह उमड़ने
प्रखर सरिता समान ॥

महानदी महानदी की महाधारा आकर
रामेश्वर की सारी शिलाओं को पाकर (२)
यदि मस्तक तक निगल जाये,
शिलायें हिलेंगी क्या ये ?
समस्त प्रवाह
लगेगा काँपने ।
होगा सिरभ्रम, मिलेगी नहीं राह,
फिसल जायेंगे पैर अपने ॥

इस अभियान में चली
शान्ति वही दशा तो नहीं भोगेगी ?
उसे लगने दो, वह तो है लगी
स्वाभिमान से मतवाली ॥

कुछ दूर चल मुनिवर
सीता के समीप पहुँचे ।
बाकी सब रहे घिरकर
नीचे, डाल पर, अम्बर में ऊँचे ॥

धवल-श्मश्रु-केश
विभूति-विभूषित रम्य-वेश
वाल्मीकि महर्षि के पास वैसे
भाने लगीं सीता काञ्चन-वर्णा,
तुषार-काय हिमालय तले जैसे
मौन निश्चल तपस्विनी अपर्णा ॥

महामुनि के आगमन पर
शोक दूर हो गया सीता का ।
हृदय में स्थगित हुआ सत्वर
जलावर्त्त चिन्ता का ॥

कहा महर्षि ने जानकी से :
‘मुझे ज्ञात है वत्से !
विपरीत बहने लगी है सम्प्रति
तेरी विरह-विपत्ति ॥

सागर के प्रति
सरिता की गति
रहती स्वभाव से ।
जब शिला-गिरिसंकट
सामने विघ्न-रूप हो जाते प्रकट,
उन्हें लाँघ जाती ताव से ॥

भूल जाती सब
पिछली व्यथाएँ सागर से मिलकर ।
दोनों के जीवन में तब
रहता नहीं तनिक-भी अन्तर ॥

संयोग-वश यदि बीच में उभर
ऊपर को भेदकर
छिन्न कर डालता बालुका-स्तूप,
सरिता और सागर के हृदय को किसी रूप,
वह स्रोतस्वती
मर तो नहीं सकती,
सम्हालती अपना जीवन-भार
ह्रद-रूप बन हृदय पसार ॥ (३)

दुनिया में वही दशा तेरी
अविकल आई है, माँ मेरी !
तू व्यर्थ चिन्ता मत कर,
चिन्ता का स्वरूप है भयंकर ॥

तेरे श्वशुर सुहृद् मेरे,
वैसे ही पिता तेरे ।
आश्रम में रह तू निःसंकोच,
सारे संसार को तिक्त सोच ॥

मेरे आश्रम में किसी भी प्रकार
रहेगा नहीं तेरी चिन्ता का अवसर ।
जन्म लेगा जो कुमार
उसके लिते शोचना मत कर ॥’

सुन बातें मुनिप्रवर की
उनके चरणों में प्रणाम कर सादर
उठकर पोंछने लगी जानकी
वस्त्राञ्चल से कपोल-परिसर ॥

‘वीरप्रसू हो वत्से !’
इस शुभाशीष वचन से
देने लगे मधुर सान्त्वना तपोधन ।
फिर बोले, ‘आ विलम्ब न कर मेरी माँ !
कर मेरे आश्रम का सौन्दर्य वर्धन
कुमारियों के बीच रहकर यहाँ ॥’

‘बालिकाओं ! पकड़ लो सत्वर
क्या क्या वस्तुएँ हैं इधर ।’
मुनिवर की अनुज्ञा मान
कन्याओं ने वैसा ही किया ससम्मान ॥

खींचतान परस्पर
पकड़ सीता की सुन्दर टोकरियाँ,
ले चलीं सादर
घिर उन्हें चारों ओर कुमारियाँ ॥

दुर्गति के मस्तक पर बारबार
करके पादुका प्रहार
मुनिवर धीरे-धीरे चलने लगे
श्रीराम-हृदय की प्रीति-प्रतिमा के आगे ॥

महामुनि कषाय-परिधान
भाये अनूरु समान, (४)
भाने लगीं उनकी अनुगामिनी
दिनकर-किरण-सी वैदेह-नन्दिनी ।
डूब गयी थी वही किरण
दुःख-पारावार-वारि में उसी क्षण ।
उधर थे अनूरु विराजित
समुज्ज्वल वर्णों से सुसज्जित ॥

महामुनि और महासती का समस्त वार्त्तालाप
सुन रहे थे विहंग-कलाप
धीरे बैठ उधर
त्याग अपना मधु स्वर ॥

देख उन्हींका प्रस्थान
आश्रम की ओर,
किया विहंगों ने मधुर गान
प्रफुल्ल-मानस आनन्द-विभोर ॥

शान्ति-रानी की तो पूरी
बज गयी रण-जय की भेरीतूरी ।
दरशाने लगे प्रसन्न भाव
नृत्य-मगन सारे मृग-शाव ॥

नये अतिथि का मुखमण्डल
मान स्नेह-पारावार,
प्यासे नयनों से वे सकल
निहार रहे बारबार ॥

अशान्ति-सिन्धु से उभरी
स्वयं राम-प्रिया सुन्दरी
जयलक्ष्मी बनकर
चल रहीं शान्ति-नगर ॥

चन्द्रिकामय पुच्छ सुन्दर
विस्तार करके ऊपर
वीथी-युगल में उभय पार्श्वगत
चलने लगे मयूर शत-शत ॥

कोमलांग समस्त हस्ती-शावक
सूँडों से कमल धारणपूर्वक
साथ दलबद्ध होकर
चले ढकेल परस्पर ॥

कुसुम-गुच्छ-विभूषित
पल्लव डोलने लगे वृक्षों में उल्लसित ।
वहीं बक सकल सुहावने
पङ्क्ति-सज्जित धवल ध्वज बने ॥

सुमधुर स्वर में कोकिल-कुल
गाने लगे मंगल गीत ।
भृङ्ग-गुञ्जार से मञ्जुल
जयशङ्ख-ध्वनि हुई प्रतीत ॥

बारबार वृक्षों से उड़कर
वहीं मुक्त-हस्त,
प्रसून बरसाने लगे पथ पर
शुक सारिका समस्त ॥

गोधूलि-तारका प्रज्वलित हुई उधर
बनकर वन्दापना-प्रदीप सुन्दर ।
मुनि-आश्रम में विराजने लगीं जानकी
तारका श्रीराम-नयन की ॥

मुनीन्द्र का निदेश मान
आश्रम में रख सारी पेटिकाएँ यथास्थान
सती सीता का वदन
किसी कन्या ने किया प्रक्षालन ॥

कोई दूसरी डालने जा रही
उनके पैरों में कलस का जल,
उसके हाथ से छुड़ा सीता ने स्वयं ही
धो लिये अपने चरण युगल ॥

किसी कुमारी ने सुकोमल पत्रासन पर
सती सीता को बिठाकर,
रख दिया सम्मुख फलमूल आहार
पत्र-थाली में लाकर सप्यार ॥

अनुकम्पा-नाम्नी वृद्धा ने
सती को अंक बिठा तत्काल,
कर-सरोज से अपने
पोंछ दिये उनके कपोल और कपाल ॥

ममता-प्रपात से सींच अनाविल
समुज्ज्वल स्नेह-सलिल
अनुकम्पा ने प्लावन से उसीके
शीतल किये प्राण राम-प्रेयसी के ॥

फिर उनका लपन निहार-निहार
कहा वचन धीर सुकुमार,
‘मेरे सौभाग्य से, माँ प्यारी !
आज तू मेरे पास पधारी ।
राजराजेश्वरी माँ तूने डूबाकर
अन्धेरों में अपना स्वर्ण-मन्दिर,
जगमगा दिया यहाँ आकर
मेरा क्षुद्र कुटीर ॥

दिनभर नहीं किया होगा ग्रहण
तूने कुछ भी भोजन ।
प्रहारता होगा चरण
उदर के अन्दर नन्दन ॥

खा ले अरी माँ ! खा जा,
तेरी माँ के घर कैसी लज्जा ?
ये तेरी सखियाँ सारी
कर रहीं तेरी प्रतीक्षा प्यारी ॥’

ऐसा कहकर अनुकम्पा ने छिलका निकाल
नारंगी-कलि हाथ में पकड़वा दिया तत्काल ।
फिर एक-एक करके पक्व कदली
कर्पूर-सी उजली ॥

दिये तिन्दुक बीज-फड़े,
पनस टुकड़े-टुकड़े,
मधुर पिण्ड-खर्जूर
साथ रसाल, रसों से भरपूर ॥

‘धीरे खा ले माँ ! खा ले’, इस प्रकार
बारबार मीठी बोली में कहकर तोड़ अनार,
हाथ में दिये पुञ्ज-पुञ्ज दाने ।
अन्त में लाकर ढेर
‘और दोठों और दोठों’ कहकर अनुकम्पा ने
खिलाये सती को आठ-दसठों बेर ॥

जननी का स्नेह-सुख समझा नहीं था
सती ने अपने बचपन में,
परन्तु वही सुख सर्वथा
समझा आज वाल्मीकि-वन में ॥

फलाहार के अनन्तर
आचमन सम्पन्न कर
मान वृद्धा तापसी का निदेश-वचन
किया सती ने काष्ठासन पर उपवेशन ॥

अर्पित की सतीके हाथ
इलायची किसी कन्या ने ।
उसे मुख में डाला आदर के साथ
सुमुखी जनक-तनया ने ॥

किसी कुमारी ने लाकर मनोरम
नीवार-नाल शुष्क सुकुमार,
उस पर बिछा मृग-चर्म
कर दी शय्या तैयार ॥

दो सखियाँ रहीं
सती के पास वहीं ।
बाकी थीं जितनी
चली गयीं पर्णशाला में अपनी ॥

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[पादटीका :
(१) निर्मला = जल-शोधनकारी फल-विशेष ।
इब, अंग, तेल - ये तीनों महानदी की उपनदियाँ हैं ।
(२) रामेश्वर = सम्बलपुर के पास महानदी का एक भयंकर विषम स्थान ।
(३) ओड़िशा में चिलिका-ह्रद-संगत नदियों की अवस्था इसका निदर्शन है ।
(४) अनूरु = सूर्य-सारथि ।
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(तपस्विनी काव्य का द्वितीय सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

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Sunday, August 28, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य प्रथम सर्ग - हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Canto-1)


TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-1]
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[Canto-1 has been taken from pages 29-46 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition 2000.]
For Introduction, please see : 'Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html


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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी
अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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प्रथम सर्ग
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कौन तू ज्योतिर्मयी ?
वेश तेरा पावन समुज्ज्वल,
इन्द्रनीलमणि-कान्ति-जयी
सुन्दर हैं तेरे कुन्तल ॥

तेरा शुभ्र सूक्ष्म परिधान
भेदकर निकली,
हृदय में कर रही आह्लाद प्रदान
कान्ति कलेवर की उजली ॥

तू चाँदनी घनी होकर
क्या बन गयी है शरीराकार ?
लेट रहा तेरे पैरों पर
केशों के व्याज अन्धकार ॥

समुज्ज्वल मञ्जुल सुविरल
तारा ग्रह सकल
रत्न अलङ्कार बन
कर रहे हैं तेरा कलेवर मण्डन ॥

अनगिन सुमन हार धवल
भा रहे तेरे गले में उज्ज्वल ।
अद्भुत कौशल से ये
सब हैं पिरोये गये ॥

शुभांग-सौरभ से मोहित
हो रही धरती ।
आ रही उसके सहित
प्राणों में प्रफुल्लता उभरती ॥

हाथ में क्या लेकर सही
है तू डाल रही ?
लोग उसे पीकर ज्योतिष्मान्
बन रहे हैं देवता समान ॥

क्या मन्त्रदीक्षा दे रही तू फिर से
चुन-चुन कर लोगों में से ?
वे रच रहे हैं प्रकाश
करके अन्धकार का विनाश ॥

तेरे चरण-चिह्न पर विमल
खिल रहे हैं शुभ्र कमल ।
लगता सार्थक नहीं इसी कारण
तेरे लिये ‘चाँदनी’ नाम उच्चारण ॥

दारिद्र्‌य-पंक से भरा
जीवन-सरोवर मेरा ।
लेकर जंजाल-जलद-सलिल
उदर हो गया है आविल ॥

शरत् समान तेरे दर्शन पाकर
हो रहा स्वयं प्रसन्न-अन्तर ।
खिल रहा इस पल
अपना हृदय-उत्पल ।
देवि ! सच क्या
तेरा चरण-सम्बल उसने प्राप्त किया ?

तेरे चरण स्पर्श करके
प्राण मेरे मोहित हो चुके ।
जैसी तेरी इच्छा,
कर ले जो लगे अच्छा ॥

वाल्मीकि-आश्रम की ओर मन है दौड़ चला
करने निर्वासिता सीता के दर्शन ।
जीर्ण हृदय उन्होंने सीं लिया कैसे भला ?
किसके साथ कैसे बिताया जीवन ?

अयि कृपावति !
कृपया तू दे शक्ति ।
पवित्र हो जाये मेरा मन देखकर
और हाथ लिखकर ॥

वन के भीतर थी
बह रही भागीरथी,
पश्चिम तट पर
उछाल ऊँची लहर । (१)
वन-दृश्य देखने अग्रसर वही
विकल जीवन में मानो पग थी बढ़ा रही ॥

उसी तट पर ही
खड़ी होकर वैदेही
निहार रही थीं पूरब की ओर,
छा गया था मन में दुःख घोर ॥

उनके नयनों से आँसू उछल
वक्ष पर गिर रहे थे अनर्गल,
जैसे उमड़ पश्चिम दिशा में बादल
प्रबल वृष्टि से प्लावित करते अस्ताचल को ।
जैसे गजराज के सूँड से निकल
सरसी के उर पर गिर अविरल
बिन्दु बिन्दु जल
भिगा देते सायंकालीन कमल को ॥

‘हा नाथ !’ उच्चार व्याकुल कोमल-अन्तर
देवी सीता विवश मुह्यमान
धीरे बैठते-बैठते धरा पर
गिर पड़ीं उत्तान ।
चेतना अपनी खोई,
थामने पास न था कोई ॥

जिनके चरणों में सेवा-निरत
थीं सेविकायें शत-शत,
दारुण विपत्ति उनकी
कोई भी देख न सकी ॥

अहो ! नियति की रीति यह भयंकर,
देखने से हृदय में किसके आयेगा नहीं डर ?
कानन ऐसा देखकर
रो पड़ा विहग-मुख में अधीर ।
निश्वास-रूप प्रखर
बहने लगा समीर ॥

सरसराहट ध्वनि प्रश्वास बनकर
हुई श्रुतिगोचर ।
कारुण्य कल्लोल समान
पल्लव हो गये कम्पमान ॥

इधर-उधर देख चकित नयन
सारे मृग रह गये व्याकुल-मन ।
माता की रुलाई निहार
उसका अर्थ न जान,
व्यस्त हो जाती जिस प्रकार
उसकी सन्तान ॥

नियति के विरुद्ध
छेड़ने युद्ध
प्रबल गरज उठा ले तलवार
ताल तरु हाथ में अपने ।
मानो निकाला उसने
पत्र का तीर,
हिलाकर बारबार
बया-नीड़ का तूणीर ॥

काँपती सरिता की ऊर्मियों से उभर
पुलिन पर
पड़े सीकर
तरंग-चोटियाँ त्याग कर ।
निकाल तरंग-तोप
सीसक-गोलियाँ भर
मानो प्रहार किया सकोप
भागीरथी ने नियति के ऊपर ॥

सरोवर के अन्दर
विचलित अरविन्दों ने छेड़ा रण,
कमल-व्यूह रचकर
प्रहार भ्रमर-मार्गण ॥

बनफूल वृन्त छोड़कर
धरती पर गिर धूलि-धूसर,
हुए तत्पर
मल्ल-युद्ध में परस्पर ।
ऊर्णनाभ-तन्तु-रूप नियति-बन्धन तोड़
लता उछल पड़ी क्रोध से दिखला होड़ ॥

भग्न-हृदय शीर्ण-काय वारिधर
दौड़ आया सक्रोध अपना दलबल लेकर ।
आँखें तरेर करके गम्भीर गर्जना
दिखला दी नियति को तर्जना ॥

सती के आनन पर सुशीतल
बिन्दु-बिन्दु जल
सींच-सींच कर अपना
उनके जीवन में लाया चेतना ॥

साध्वी कुल-वधू की दुर्दशा करके दर्शन
दिवाकर ने लज्जावश छुपा लिया लपन ।
सारी दिशा-वधुओं ने उदास-मुख बैठकर
मन्द्र स्तनित-क्रन्दन से हिला दिया अम्बर ॥

कुछ समय के अनन्तर
चेतना-प्राप्त महादेवी कातर
अतिशय निराश-मति
निहारने लगीं दश दिशाओं प्रति ॥

सारी दिशायें उसी समय
दृश्य हुईं श्रीरामचन्द्रमय ।
बैठे हैं उदास-अन्तर
प्रभु रघुवीर ।
कृताञ्जलि खड़े हैं उधर
समक्ष लक्ष्मण सुधीर ॥

दोनों के नयन हैं बने
अश्रुओं के झरने ।
पूछ पाते नहीं रघुनन्दन
देवी सीता की खबर,
व्यक्त होता नहीं वचन
लक्ष्मण के मुख से बाहर ॥

लगीं सूरज की ओर देखने;
सूरज की गोद में रघुनन्दन
हाथ रख माथे पर अपने
बैठे हैं विनत-वदन ॥

दृष्टि गयी भागीरथी की ओर तदनन्तर,
देखा, भगीरथ के पीछे चले हैं रघुवर ।
गंगाप्रवाह-सा
राम-नयनों का नीर ।
कभी उसमें वे डूब जाते सहसा,
कभी बह जाते अधीर ॥

वहीं से आँखें मोड़कर
देखा सती ने अपना उदर ।
तब स्वयं ही निरर्गल
बरसाने लगीं अश्रु-जल ॥

संकुचित हो गयीं जानकी
निहार दूर्वाएँ श्याम-वर्ण की ।
चलने शिला की ओर लगा मन अपना,
परन्तु करके कुछ भावना
उधर भी न चलीं श्रीराम-नायिका,
रोक न सकीं आवेग रुलाई का ॥

करुण आर्त्त स्वन में
दग्ध वदन में
विलाप-विह्वल सती ने उस पल
स्तब्ध कर दिया बनस्थल ॥

दुःखिनी का था स्वर :
“ हा हा प्राणेश्वर !
करुणा-रत्नाकर !
स्नेह-जलधर !
किस कुलग्न में किया था आपने
इस अभागिन का पाणिग्रहण ?
आप दारुण दुःख-भवन बने
उसीके ही कारण ॥

प्रभु की अपार महिमा न जान
एक धनुष रखा था
मैंने गरिमा से घिर सर्वथा ।
तोड़ उसे इक्षुदण्ड समान
आपने मुझे थी मान ली
उसकी मधुरिमा रसीली ॥

वन-भ्रमण में वीर-शेखर !
मुझे चरण-शृंखला न समझकर
स्नेह से आपने
साथ लिया अपने ।
चरण-शृंखला को हार
हृदय का बनाकर
आपने किया विहार
पुनीत तीर्थों पावन आश्रमों पर ॥

मुझ पर स्नेह कितने
वन में थे बरसाये ।
कैसे भूल सकूंगी उन्हें
जीवन में हैं गहरे समाये ॥

तुच्छ यह दासी
क्षुधा से जायेगी तरस,
वन में करके भावना ऐसी
फलमूल लाते थे आप निरलस ॥

पल्लव-शय्या
होगी नहीं निद्रा-योग्या,
उसके लिये यही विचार
अंक-पलंक में करते थे झुला तैयार ॥

तुच्छ-सी मेरे
स्नेह-बन्धन में घेरे
आपने लाँघ महासागर
छेड़ा लंकापति से भयंकर समर ॥

सह लिये उसमें कई महास्त्रों के प्रहार,
समझते थे उन क्षतों को हृदय का हार ।
पदक में उस हार के
योग्या विचार करके
मुझे रखते थे मनोहर
मध्य-मणि बनाकर ॥

देख जब क्षत-चिह्न सकल
होता था मेरा मन विकल,
आप वाणी में अमृत सान
सदा करते थे मुझे सन्तोष प्रदान ॥

कहा था आपने :
‘इस घोर समर-यज्ञ में
अर्पण कर लहु की आहुति हमने
तुम्हीं दुर्लभ विभूति को पाया है, प्रियतमे !’

आज तक तीर-चोटों के चिह्न हैं मिटे नहीं,
हाय ! बिछड़ गयी आपसे अभागिन मैं यहीं ।
कृपया मिटा दें
हृदय-फलक से मेरी यादें,
आती रहेगी अन्यथा
पल-पल मनोव्यथा ॥

मैं तुच्छ क्या हूँ ?
आपके प्रजा-जनों में खुशी भर आये ।
मैं मर जाऊँ,
कलंक आपका मिट जाये ॥

इसीसे निकलेगी जो कीर्त्ति अक्षया,
उसीकी अटूट मूर्त्ति बनाकर
आप रख लें कृपया
अपने हृदय के भीतर ॥

आपके वंश-जनक ये अंशुमान्,
करने संसार को कल्याण प्रदान
स्वयं मुक्त-कर
हैं निरन्तर ॥

धरित्री की धात्री-रूपिणी ये भागीरथी
आपके कुल की विश्रुत कीर्त्ति शाश्वती ।
कीर्त्ति की तो रक्षा करने
मुझे त्याग दिया आपने ।
महाभाग ! यह आप ही का
अनुरूप है कर्म ।
रहेगा इस कीर्त्ति-केतन में चित्र पापिनी का,
परन्तु है यह विचित्र विषम ॥

धिक् मेरा जीवन,
नाथ ! केवल मेरे लिए
बने अपयश के भाजन
आप निष्कलंक होते हुए ॥

त्याग आपके चरण
किसकी शरण
ले लूंगी मैं ?
जब मेरा तन
जला नहीं सकता ज्वलन,
किससे जलाऊंगी मैं ? (२)

अपना ली है इन सारी
दूर्वाओं ने आपकी आभा प्यारी ।
इन्हें छोड़ वन में दूसरा
लूंगी मैं किसका आसरा ?

आपकी अनुकम्पा शिला पर
दरशाती असर । (३)
भला मुझे लेकर किसलिये
दण्डित होंगी ये ?

आपने जो भण्डार रत्न का
मेरे गर्भ में है स्थापित किया,
उपाय उसके रक्षण का
क्या है, नहीं बताया ॥

हृदय में गहरी
आशा पली थी मेरी,
सौंप यही अमूल्य रतन
करती मैं आपका अंक मण्डन ॥

परन्तु परिणाम उस आश का
बन गया प्रसून आकाश का ।
धन्य रे दैव ! नमस्कार
तुझे सहस्र बार ॥

पिता हैं महाराज
संसार में विशाल कीर्त्तिमान् ।
अरे दैव ! उनके कुमार की आज
करेगा तू कैसी दशा विधान ?

पर्वत के अंग पर
होता वज्राघात प्रखर ।
उसी संग गिरिवासी का संहार
है कैसा हाहाकार ?

धन्य नाथ ! मुख आपका
निष्यन्द है अमृत का ।
हृदय-पर्वत है अपार
अमृत-हिमशिलाओं का भण्डार ॥

यदि कभी जलता
वही हृदय दुःख से,
फिर भी अन्य कुछ नहीं निकलता
अमृत-अतिरिक्त मुख से ॥

समाचार मेरे अपवाद का हठात्
हुआ आपका श्रवण-गोचर,
अवश्य आया होगा दारुण व्यथाघात
आपके हृदय के भीतर ॥

परन्तु बोले नहीं, प्राणेश्वर !
आप एक पद भी कठोर बात ।
मधुमयी आशा देकर
मुझे त्याग दिया अकस्मात् ॥

मेरा अर्जित पाप ही
मेरे दुःख का कारण सही ।
उस पाप का स्मरण
मुझे हो रहा है इसी क्षण ॥

मेरे स्वामी महिमा-पारावार,
परन्तु उन्हें इतर मान
‘रक्षा करो लक्ष्मण’ पुकार
उनकी समझ बैठी मैं अज्ञान ॥

निम्न मन में अपने
लक्ष्मण को नीच विचार कर
बाध्यतापूर्वक प्रेषित किया मैंने
आपके समीप सत्वर ॥

उस पाप के कारण तत्काल
बढ़ाने उन प्रभु की महिमा विशाल,
हुआ चिरन्तन
इस पापिनी का निर्वासन ॥

दिया था जो तिरस्कार
निर्दोष लक्ष्मण के प्रति,
उसका समुचित पुरस्कार
मैंने प्राप्त किया संप्रति ॥

मुझसे उन्हें दूर हटाने
अत्यन्त व्यग्र होकर मैंने
उनके हृदय पर बारबार
किया था वचन-वज्र का प्रहार ॥

भक्ति-परायण लक्ष्मण
प्रणिपात कर मेरे चरणों तले
विनय-वचन कहकर तत्‌क्षण
मुझे दूर त्याग चले ॥

एक छिन्न मस्तक लाकर दशमुख ने
दिखलाया मेरे पापी नयनों के सामने ।
समझ उसे स्वामी का सिर
व्याकुल-प्राणा मैं सत्वर
रो पड़ी अधीर,
अश्रु-धारा में बहकर ॥

वही शीश देखकर भी
मेरा मरण न आया तुरन्त ही ।
उसी पाप से हूँ अभी
मैं जीते-जी जल रही ॥

आपके चरणों का सेवा-सुख
समझकर हल्का,
आश्रम-दर्शन का सुख
चाहा मैंने दो पल का ।
मुझे आपसे बिछड़ाकर सही
कह रहा पाप वही,
‘पापिनि ! अब कर वैसी
तेरी इच्छा जैसी ॥’

अयोध्या-राजलक्ष्मी के प्रेम-बन्धन में न आये
आपने संग मेरे कई दिन बिताये ।
थी मौका ढूँढ रही
राजलक्ष्मी ईर्ष्या से जल,
बहुत दिनों तक वही
न सकी और सम्हल ॥

उसके दुःख के साथी बन
थे जो नगरवासी प्रजाजन
उन्हें करा दिया स्मरण
मेरे निर्वासन के लिये उसी क्षण ॥

अयोध्या में विराजती
सपत्नी-शक्ति गरीयसी ।
उसे दमन कर नहीं सकती
पति-शक्ति महीयसी ॥

जब हुआ सफल
पराक्रम कैकेयीजी का,
उस देश में आ गया प्रबल
बल राजलक्ष्मी का ॥

‘प्रजा-रञ्जन की यदि हो आवश्यकता
प्राण-सी सीता को भी मैं त्याग सकता ।’
अष्टावक्र मुनि के समक्ष
कहा था आपने प्रत्यक्ष ।
उन वचनों का आप करते होंगे स्मरण
शिथिल होने न देकर अपना प्रण ॥

पितृ-वचन पालन में आप विमुख नहीं,
पति-वचन पालन में यदि मेरा दुःख नहीं,
तब ही बन सकूँगी मैं भवदीया
पत्नी-पदवी की योग्या ।
मन मेरा निश्चय
समझ लेगा यही विषय ॥

प्रजा-रञ्जन में व्रती आप अग्रणी,
मैं आपकी सहधर्मिणी ।
आपके चरण-चिह्न पर
गति मेरी है निरन्तर ॥

प्रजा-मन में सन्तोष जगाये
मेरा यह निर्वासन ।
सम्पूर्ण निर्दोष बन जाये
प्रभु का व्रत पावन ॥”

सती के रोदन से स्तम्भित
हो गयी पवन की गति ।
जल-स्थल के सहित
कातर हो उठी प्रकृति ॥

वेग रुक गया गंगा-तरंगों का,
वन में बन्द हो गया कलरव विहंगों का ।
एक भी पल्लव वृक्षों का
न हिला वहीं ।
लीलामयी लताओं का
तन भी डोला नहीं ॥

डाल-डाल पर आसीन विहंगमगण
करने लगे लय श्रवण में सकल,
प्राणों में भर प्रतिक्षण
सन्ताप का प्रवाह प्रबल ॥

मृग-शावक माता के स्तन पर मुख डाल
स्थिर रहा क्षीर न चूस तत्काल ।
मृग-मृगीगण स्थिर निरख
मुख के कुश-ग्रास मुख में ही रख,
रह गये ग्रीवा भंग कर
शोक-ध्वनि में निमग्न-अन्तर ॥

मयूर-मयूरियों ने
साथ ले अपने छौने
चित्रित-तुल्य रहकर
चपलता त्याग दी सत्वर ॥

शावकों के संग हस्ती हस्तिनी सकल
काष्ठ-गज समान,
रह गये राह पर निश्चल
भूल गंगा की ओर प्रस्थान ॥

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[पाद-टीका :
(१) वाल्मीकि-आश्रम गढ़वाल के पास गंगा दक्षिण-वाहिनी । वहींसे अयोध्या पूर्वदिशा में अवस्थित ।
(२) लंका की अग्निपरीक्षा में सीता दग्‌ध नहीं हुई थीं ।
(३) श्रीराम के पावन पदरज-स्पर्श से पाषाणी अहल्या दिव्य नारी बनी थीं ।]
* * *

(तपस्विनी काव्य का प्रथम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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‘तपस्विनी’ काव्य पञ्चम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Canto-5)

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem

By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Canto-5]
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[Canto-5 has been taken from pages 90-100 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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पञ्चम सर्ग
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राजोद्यान-सुषमा पारावार-तरंग
शीश पर धारण कर प्रसून -फेन-सम्भार ।
चरण-पुलिन में जिन सती-रतन के,
नख-मोती-ज्योति-सेवन से थी समुज्ज्वल,
उनका मंगल आगमन निहार
हर्षोल्लसित हो उठे संग संग
मुनि-उपवन के
पादप व्रतती कुसुम सकल ॥ (१)

एक तो मधुमय समय कुसुमाकर ;
फिर बालारुण की किरण सुनहरी,
हिम-सिक्त पल्लवों में प्रसारित हो सुन्दर
कर रही लीला रंगभरी ।
शिशिर-बूँदों में बिखरी
दिखला विचित्र कारीगरी
रच रही अगणित हीरे नीलम
मोती माणिक्य मनोरम ॥ (२)

सूर्य-प्रभ मणिराशि-विभूषित दशानन के
दशमुखों का ज्योति-गर्व था हर लिया
सतीकुल-रत्न के
जिन पावन चरणों ने,
मुनि-उद्यान में पधार आज उन्हों ने
मानो वही सारा मणि-गर्व बिखरा दिया ॥ (३)

सती का हृदय
श्यामल राममय ।
उसे हर ले तरु सकल
क्रम से बन गये घन-श्यामल ।
सती-मन की शरण पति केवल;
उनकी अंग-प्रभाओं ने आकर्षित होकर
सुमनों में क्रम से चल
बनाया अपना अपना घर ॥ (४)

भ्रमर ने ले ली केशों की चमक,
शरीर की आभा-सम्पदा ले गया चम्पक ।
लालिमा अधर-युगल की
जबा-पुष्प के पास चली
और गयीं सभी बाकी
जिसमे जिसकी थी रुचि भली ।
सब कान्तिमय उज्ज्वल
बन गये उस पल ।
मानो स्वर्गलक्ष्मी ने धरा पर पधार
बनाया उस उद्यान को अपना लीलागार ॥ (५)

सती की कान्ति
थी सुधा की भाँति ।
फूलों में आ बसा
मधु अमृत-सा ।
मृदुता मञ्जुता दोनों ने चल उसी प्रकार
फूलों के अंगों में किया स्थायी विहार ।
नीरस जीवन में
प्रभा-रहित तन में
हो गयीं काननवासिनी
तपस्विनी बन सती जनक-नन्दिनी ॥ (६)

करने सती का सत्कार विधान
रातभर सुन्दर चन्द्रातप तान
हेम-सुमनों के लम्बन
बनाये थे ऊर्णनाभों ने सुशोभन ।
कनक-गोलक रूप पक्व नागरंग
शत-शत डोल रहे थे उनके संग ॥ (७)

पङ्क्तियों में पत्र-पताका पकड़ी
रम्भा-सुन्दरी थी खड़ी ।
सुन्दर मुचुकुन्द, कुन्द,
साथ माधवी, नियाली, वकुल,
ये सभी वल्लरीवृन्द
निहार रही थीं ले पुष्पपुञ्ज मञ्जुल ।
समीप थी नवीना रजनीगन्धा,
सुमनों से था शोभित जूड़ा बँधा ॥ (८)

जब पहुँचीं उनके समीप जाकर
सखियों के संग जनक-तनूजा,
मृदुल बयार से पुलकित काया
किसीने चूम लिया सती का सिर
उस पर सुमन-माला सजाकर ।
किसीने हाथ मिलाया,
किसीने आलिंगन किया फिर
किसीने की चरणों की पूजा ॥ (९)

सुन्दर लोहित पैर लेहन करने
जिह्वा लम्बी कर दी पारिजात ने ।
मोती-द्युतिमय नख
चूमने की कामना रख
रहा अपना बदन खोल अनार ।
करुणा-ऋण पाने की आशा लेकर
चीनीचम्पा बन गयी हरिद्वर्णा उधर
राम-रूप के अनुसार ॥ (१०)

इन्दुकला-सम कोमल सुहावने
बाल-पादप सब स्थान-स्थान पर
उठाकर मस्तक अपने
झाँक रहे थे बाड़े के ऊपर
सती की ओर प्यासी आँखों में ।
नहीं उठ पाये जिनके मस्तक,
दर्शन करने एक झलक
वे बाड़े के भीतर ही
हो उठे अत्यन्त आग्रही
रन्ध्र की राहों में ॥ (११)

वृक्षों के बाड़े पर बैठी हुईं
चाञ्ची और फूलचुईं
सती की ओर थीं निहार रही,
कभी कभी गुञ्जार रही ।
पूँछ रही सानन्द हिल;
भावना रही, सती जब डालेंगी सलिल
सब आलबाल में बैठकर
नीर पान करेंगी निडर ॥ (१२)

ऊर्णनाभ कभी सती के पाँव गिर
पादप के ऊपर उठ रहा फिर ।
तरु से तरु पर लगा चञ्चल छलांग
कर रहा अपना सर्वांग
कारु-कौशल प्रदर्शन ।
उसका सूक्ष्म सूत्र-पुञ्ज शोभन,
कई रंगों से रंग रहे दिनकर
चित्रकर बनकर ॥ (१३)

स्वभाव से श्यामल-पत्रपूर्ण तरु सकल ;
तरु-शिखासीन कहीं चञ्चल
चञ्चू-मार्जन से समुज्ज्वल लगतीं
मरकत-कान्तिमय ठिण्ठिणी-पङ्क्तियाँ,
श्याम सागर की ऊर्मियों में लेटतीं
जैसे अंशुमान् की रश्मियाँ ॥ (१४)

प्रीति-प्रभामय
श्रीरामचन्द्र का हृदय
अस्थिर होकर राजसिंहासन में
मानो दौड़ आया है उपवन में
मिटाने सती की अन्तर्वेदना ।
नयन-रञ्जिनी मञ्जुल ज्योति वही
स्वाती-सलिल की भाँति कर रही
सती-हृदय में प्रेम-मोती की सर्जना ॥ (१५)

कहीं पर पनस-वन गहन,
कहीं अम्बर-चुम्बी आम्रवन ।
आम्रवन के तलप्रान्त में नभ था दृश्यमान
प्राकृतिक झील-सलिल के समान ।
तरु-शाखाएँ शत-शत
थीं प्रतीत हो रही,
जैसे सबने एकमत
निर्माण किया है कानन वही ॥ (१६)

शान्ति-सरोवर के तट निर्जन
मानो आश्रय लिया है तापस-समुदाय ने ।
गुरु विघ्नभार बहन कर
अपने सिर पर
मौन निश्चल गंभीर भाव सहित,
मानो कर रहे थे अवलोकन
सती सीता पर पतित
शीतांशु-खरांशु-रश्मियों का सन्ताप शान्त करने ॥ (१७)

प्रियंगु-संगत रम्य इंगुदी-कानन
कहीं बना चुके श्यामल भवन ।
रही वहाँ सरस स्वर-मधु वितर
श्यामा नववधू बनकर ।
इन्द्रनीलों से भव्य निलय बना
शचीदेवी इन्द्रादेश के अनुसार
मानो अर्पण करने नीराजना
सती को बुला रहीं वहीं पधार ॥ (१८)


चिक्कण उज्ज्वल नील पर्ण शोभन
अत्यन्त श्यामल पुन्नाग-वन
उड़िशा से उड़ गया था क्या ?
और सती का मन रंग दिया ।
नीलाचल-रूप धारण कर
मानो वह था स्वयम्
श्रीरामचन्द्र मनोरम,
प्राप्त करने सीता के प्रेम-सिन्धु की लहर ॥ (१९)

उद्यान में सती ने एक बार
सखियों के साथ किया विहार ।
आर्यावर्त्त-उर पर क्या भागीरथी
सखियों के संग अग्रसर थी ?
मार्ग भाने लगा सुन्दर
गन्धर्वबाला-विलसित चैत्ररथ का उपहास कर ॥ (२०)

तदुपरान्त ले तमसा-सलिल
आलबालों में भर दिया सबने मिल ।
जैसे नन्दन-वन में डालतीं
नीर मन्दाकिनी का
स्वर्ग-सुन्दरी कन्याएँ ;
जैसे प्लावित करतीं
उर मेदिनी का
सिन्धु-जल लेकर घटाएँ ॥ (२१)

कटि-तट आँचल कस
वे चल रहीं स्फूर्त्त निरलस ।
रूक्ष-कुन्तल मस्तक पर अपने
रखे थे कलस सुहावने ।
स्वेद-सरस था ललाट-परिसर,
पोंछ रही थीं हस्त उठाकर ।
बीच-बीच में ताक एक बार प्रतीक्षा की,
मन्दगामिनी राजनन्दिनी सीता की ॥ (२२)

अनुकम्पा इसी समय पधार
बोलीं वचन मधुमय सदुलार :
‘मेरी सीता सती
नीर बहना नहीं जानती ।
उसके सुकुमार प्राणों में व्यथा
हो रही होगी सर्वथा ।
अधिक श्रम मत करने दो,
केवल निहारने दो
उद्यान को एक झलक ।
पहली बार आई है यहाँ तक ॥ (२३)

आ जा, आ माँ !
बैठें शीतल छाया में यहाँ ।
मत कर दूसरा प्रयास,
आश्रम-रीति कुछ बताऊंगी तेरे पास ।’
अनुकम्पा कहकर इस प्रकार
ले गयीं दिखला प्यार ।
संग बैठीं सीता छाया में उधर,
नीर लाने हो गयीं तापसियाँ तत्पर ॥ (२४)

अनुकम्पा वहाँ बोलीं : ‘वत्से !
लोग कार्य करते श्रद्धा से ।
सुमन-सुमन में
जैसे तरह-तरह की महक रहती,
जीवन-जीवन में
वैसे श्रद्धा बसती ।
फल प्रदान करती स्वभावानुसार
दैवी, मानवी और आसुरी, श्रद्धा तीन प्रकार ॥ (२५)

दम्भ में, अहंकार में, काम-पोषण में, आसक्ति में,
आत्माकर्षण में, शारीरिक-शक्ति में
तप करते असुर-स्वभावी मानव ।
तेरे स्वभाव में ये नहीं संभव ।
देव-द्विज-गुरु-विद्वज्जनों का पूजन
करती तू शुद्ध-मन,
पवित्रता, सरलता तथा
श्रद्धा के साथ सर्वथा ॥ (२६)

शान्तिदायक सत्य प्रिय वचन
तेरे जीवन का प्यारा मण्डन ।
कपट तेरे मन को स्पर्श कर नहीं पाया;
फिर पास कैसे प्रवेश कर सकेगी माया ?
तेरी कमनीय सौम्य मूर्त्ति बताती यहीं,
विषय-गहन में तेरा अनुराग और नहीं ॥ (२७)

अरी वत्से !
तपस्विती तू दैव-स्वभाव से ।
दर्शन-मात्र से लिया मैंने तुझे पहचान,
अत्यन्त सुकुमार तेरे पवित्र प्रान ।
घोर तपस्या का है दुर्लभ फल;
पुण्य-वल्लरियों का फूल,
नयी तापसियों का श्रम सकल
नहीं उसका अनुकूल ॥ (२८)

तू जल लाती रहेगी
कुमारियों के संग रहकर तुम्बी भर
और जलाती रहेगी
उनका उत्साह-दीपक निरन्तर ।
छोड़ेंगे नहीं वे तेरे पास,
उन्हें समझा दिया है मैंने ।
झेल सारी भूख प्यास
तू लजाएगी नहीं पान-भोजन करने ॥ (२९)

कभी-कभी कन्याओं का उद्यान में हो काम
बस तू कर लेगी आराम ।
जिस वस्तु के लिये जब इच्छा होगी तेरी,
कन्याएँ पहुँचा देंगी न करके देरी ।
स्वयं विहर उद्यान में तू,
अपनी इच्छा के अनुसार
फल-पुष्प चयन हेतु
करेगी नहीं मन में शंका किसी प्रकार ॥’ (३०)

हो गयी प्रातः सप्त वादन बेला,
बैठ गयीं अनुकम्पा के निकट
अपने साथ ला
समस्त शून्य घट,
एक-एक हो धीरे से
स्विन्न-देहा कुमारियाँ ।
खिली धूस्तुर सुमन के पास जैसे
कुछ फल और पास ओसभरी कलियाँ ॥ (३१)

वहीं से उठ सम्पन्न कर स्नान दुबारा
सब लौट चलीं अपने आगार ।
लाये गये थे जो फलमूल तापसों द्वारा
सबने सादर किया आहार ।
मध्याह्न-बेला तापस-तापसियों ने बितायी
अध्ययन-अध्यापन करके नियमानुयायी ॥ (३२)

तापस-तापसियों के भरपूर
स्नेह-सुख ने भगा दिया दूर
समस्त व्यथाओं को सती-मन की ।
स्मृति की राह में उनकी
विलासमय राजसुख वहीं
एक बार भ्रमवश भी आया नहीं ।
उनके विमल हृदय-सरोवर में अविराम
विहर रहे राम-राजहंस अभिराम ॥ (३३)

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(तपस्विनी काव्य का पञ्चम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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Saturday, August 27, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य 'मुखबन्ध'- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini 'Preface')

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem

By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [Preface]
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['Preface' has been taken from page-28 of my Hindi 'Tapasvini' Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya'
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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मुखबन्ध
(मूल ओड़िआ का हिन्दी रूपान्तर)
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पितृ-सत्य की रक्षा के लिये वनवासी होने से श्रीराम का, और स्वामी की अनुगामिनी होने से सीता का, जो माहात्म्य व्यक्त हुआ था, सीता के निर्वासन से वह सौरभमय हो गया । निर्वासन-कष्ट सहने से सीता की पतिभक्ति जिस तरह तेजोमयी हो गयी, उनकी स्वर्णमयी प्रतिमा की स्थापना पूर्वक अश्वमेध यज्ञानुष्ठान करने से श्रीराम का पत्नी-प्रेम उसी तरह दीप्तिमान् हो उठा । उपयुक्त पति की उपयुक्त पत्नी । मिथ्या अपवाद के कारण सीता स्वामी द्वारा परित्यक्ता हुई थीं; फिर भी स्वामी के हार्दिक प्रेम को यथार्थरूप से समझ सकी थीं । निर्वासन को अपना भाग्य-दोष मानकर उन्होंने पतिभक्ति को कैसे दृढ़तर और उच्चतर किया था, वनवास को पति की कल्याण-साधिनी तपस्या में परिणत कर तपस्विनी के रूप में कैसे दिन अतिवाहित किये थे, उसी विषय को प्रकट करना इसी पुस्तक का प्रधान उद्देश्य है ।

सीता ने जिस प्रकार स्वामी की करुणा प्राप्त करने की आशा त्याग दी थी, मैंने उसी प्रकार उनके ऊँचे चरित्र को प्रकट करने में सफल होने की आशा छोड़ दी है । तब श्रीराम ने तपस्विनी सीता के स्थान पर हृदय की चाँदनी को मनोहारिणी मूर्त्ति बनाकर यज्ञ संपन्न किया था । विद्वान् पाठकगण, इसमें मेरे कृतित्व को लक्ष्य न करते हुए अपने अपने हृदय में स्थित सीता के उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र चरित्र से चित्रित स्मृतिपट का एक एक बार उद्घाटन करके नारी-हृदय की उन्नति विधान करेंगे, केवल इतनी ही आशा है ।

उपसंहार में वक्तव्य यह है कि मेरे प्रिय सुहृद् श्रीयुत ब्रजमोहन पण्डा ने इस पुस्तक के प्रणयन के लिये मुझे जो ओजस्वी उत्साह प्रदान किया है, वह सर्वथा अतुलनीय है । मैं इसलिये उनके प्रति गभीर कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । इति ।

विनीत
श्रीगंगाधर मेहेर
पद्मपुर
दिनांक : ५-१०-१९१४
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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Friday, August 26, 2011

'तपस्विनी’ काव्य ‘प्राक्‌कथन’- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini 'Foreword')

TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem

By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher


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Tapasvini [‘Praak-Kathan’]
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[‘Praak-Kathan’ has been taken from pages 10-12 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya '
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर


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प्राक्‌कथन
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आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विश्व-साहित्य में अनुवाद एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । विभिन्न-भाषा-साहित्यों के परस्पर भाव-विनिमय के लिये अन्य भाषा में अनुवाद करना अत्यन्त आवश्यक अनुभूत होता है । अनुवाद के माध्यम से साहित्य के तुलनात्मक विश्लेषण के साथ प्रसार का परिसर अधिक होता है । यदि अनुवाद न होता, तब विविध भाषा-वाङ्मयों से परिचित होने का अवसर उपलब्ध नहीं होता । किसी भी भाषा में अनुवाद करना सरल कार्य नहीं है । अनुवाद मूलभाषा का यथार्थ अनुगत होना चाहिये । एक साहित्य - कृति को, विशेष - रूप से कविता को, भाषान्तरित करना न केवल आयास - सापेक्ष है, अपितु ज्ञान और प्रतिभा का निर्णायक भी । अनुवाद ऐसी एक विशिष्ट कला है, जो सभी के द्वारा सम्भव नहीं । यह कार्य बाह्य दृष्टि से सरल प्रतीत हो सकता है, परन्तु वास्तव में अनुभवी ही अनुवाद का श्रम और महत्त्व समझता है ।

स्वतःस्फूर्त्त मौलिक कविता-रचना में कोई प्रतिबन्ध प्राय नहीं होता । परन्तु अनुवाद में उपयुक्त शब्द-चयन, भाव की यथायथ सुरक्षा और लालित्य-माधुर्यादि की दृष्टि से अनुवादक एक निर्दिष्ट सीमा के भीतर बँधा रहता है । मूल भाव के आन्तरिक आलोड़न के कारण समयानुसार अनुवाद में भी स्वतःस्फूर्त्त पदावली के अभिव्यक्त होने में कोई अन्तराय नहीं रहता । मूल भाव की सुरक्षा के साथ अनुवाद की शाब्दिक मौलिकता तथा उपस्थापन-शैली भी प्रणिधान-योग्य होती है । मेरे अनुवाद में ऐसी अनुभूति हुई है । इस सम्बन्ध में कुछ अपनी बातें सविनय निवेदन करना चाहता हूँ ।

हिन्दी-अंग्रेजी-अनुवादों के माध्यम से महाकवि गंगाधर-मेहेर-कृत ‘तपस्विनी’ को परिचित कराने के उद्देश्य से मेरी आन्तरिक निष्ठा सहित आकाङ्क्षा जाग उठी थी सन् १९८२ के शेष भाग में । इन दोनों भाषाओं में सम्पूर्ण अनुवाद करने अक्टूबर १९८२ से लेकर जुलाई १९८३ तक अदम्य उत्साह और लगन के साथ मुझे बहुत श्रम करना पड़ा । उभय अनुवादों में अल्प कुछ स्थलों पर बाद में अति सामान्य परिवर्त्तन किया गया है ।

संस्कृत में अनुवाद करने की अभिलाषा मेरे मन में सुप्त रूप में थी । जनवरी १९९७ में बैंगलोर में आयोजित ‘दशम विश्व संस्कृत सम्मेलन’ में सक्रिय योगदान करने के उपरान्त मेरी आन्तरिक प्रवृत्ति ने ‘तपस्विनी’ का सम्पूर्ण संस्कृत अनुवाद करने मुझे विशेष उद्वेलित और उद्‌बुद्ध किया । फलस्वरूप १९९७ फरवरी-मार्च के अन्दर साग्रह परिश्रम पूर्वक मैंने संस्कृतानुवाद करने का परम आनन्द परितृप्ति के संग प्राप्त किया है । मेरे प्रत्येक अनुवाद में परमेश्वर की आशीर्वादात्मिका शक्ति प्रच्छन्न रूप से असीम प्रेरणादात्री बनी है ।

बरपाली में कवि गंगाधर-जयन्ती के शुभ अवसर पर ‘मेहेर ज्योति’ (अगस्त १९८३) पत्रिका में सम्पादक-मण्डली ने मेरे हिन्दी-अंग्रेजी-अनुवादों के बारे में स्वतन्त्र उल्लेखपूर्वक विज्ञापन दिया था । बाद में दोनों अनुवादों की कुछ पङ्क्तियाँ ‘सन् टाइम्स्’ (भुवनेश्वर), ‘सप्तर्षि’ (सम्बलपुर विश्वविद्यालय) और ‘झङ्कार’ (कटक) आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं । मेरे त्रिभाषी अनुवादों की अनेक पङ्क्तियाँ याजपुर की त्रैमासिक ‘बर्त्तिका’ के विषुव विशेषांक १९९९ में दीर्घ लेख के साथ प्रकाशित हुई हैं ।

तपस्विनी काव्य के मेरे अनुवादों के सारस्वत त्रिवेणी-प्रवाह में मैंने अपनी रुचि के अनुसार मुक्त छन्दोधारा के साथ व्यवहित तथा अव्यवहित मित्राक्षर में उपधा-मिलन का प्रयोग किया है । तीनों में अनुवाद-शैली प्राय एक जैसी है । उभय मित्राक्षर और अमित्राक्षर छन्द मेरे प्रिय हैं, फिर भी मित्राक्षर छन्द के प्रति मेरा विशेष आकर्षण रहा है । अतः तीनों अनुवादों में मित्राक्षर प्रयोग की दिशा में मैंने सारस्वत उद्यम किया है । काव्य के मूल भाव को पूर्णरूप से यथार्थ और अक्षुण्ण रखने का यथासम्भव प्रयास किया है, विशेषतः अपनी सरल ललित मौलिक शब्दावली के माध्यम से ।

समय ही सर्वशक्तिमान् है । सुयोग के अभाव के कारण अनुवाद कई दिनों तक पुस्तकाकार में अप्रकाशित रहा है । परम हर्ष का विषय है कि सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन हो रहा है । इस अभिनन्दनीय दिशा में गुणग्राही आद्य उद्योक्ता मान्यवर कुलपति प्रोफेसर डॉ. ध्रुवराज नाएक महोदय के प्रति मेरा अशेष आन्तरिक आभार व्यक्त करता हूँ । हार्दिक उत्साह प्रदान हेतु माननीय प्रोफेसर डॉ. मधुसूदन पति महोदय का विशेष आभारी हूँ । अनुवाद में कोई त्रुटि रह गई हो तो सहृदय काव्यामोदी पाठक-मण्डली का क्षमाप्रार्थी हूँ । कृपया सूचना देने का कष्ट करेंगे ।

तपस्विनी-अनुवाद की दिशा में मेरे पूज्य पिता-माता, गुरुजनों, बन्धुजनों तथा विविध पत्रिका-सम्पादकों की हार्दिक सदिच्छा और प्रेरणा के लिये मैं सविनय आभारी हूँ । उन सभी का स्नेह सदैव स्मरणीय रहेगा । लब्धप्रतिष्ठ साहित्यिक डॉ. केशवचन्द्र मेहेर महोदय ने मेरे इस हिन्दी-अनुवाद में बहुमूल्य ‘भूमिका’ लिखकर मुझे कृतार्थ किया है । इसलिये उनके प्रति आन्तरिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ ।

विनयावनत
हरेकृष्ण मेहेर

भवानीपाटना
दिनांक : २०-७-२०००
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]

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Thursday, August 25, 2011

Articles on Tapasvini Kavya:‘तपस्विनी’: हिन्दी-अंग्रेजी-संस्कृत लेख/ हरेकृष्ण मेहेर

My Hindi-English-Sanskrit Articles on Tapasvini Kavya

* तपस्विनी : एक परिचय *
* Tapasvini of Gangadhara Meher : A Critical Observation *
* तपस्विनी-महाकाव्यम् : एकमालोकनम् *
(All Articles are written by Dr. Harekrishna Meher)
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Oriya Mahakavya “ Tapasvini ” of Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
has been completely translated into three languages by Dr. Harekrishna Meher.

(1) TAPASVINI (Complete Hindi Version of Oriya Kavya ) has been published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur-768019, Orissa. First Edition : 2000 AD.
Hindi Article Tapasvini : Ek Parichaya’ has been included as Introductory in this Hindi Tapasvini Book .
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html  
*
(2) TAPASVINI OF GANGADHARA MEHER
(Complete English Version of Oriya Kavya Tapasvini)
Publisher : R.N. Bhattacharya, A-127, HB.Town, Sodepur, Kolkata-700110.
ISBN : 81-87661-63-1, First Edition : 2009.
English Article ‘ Tapasvini of Gangadhara Meher : A Critical Observation’ was first published in ‘Kalahandi Renaissance’ (Research Journal of Government Autonomous College, Bhawanipatna, Orissa, Volume-I, Year 2005).
Later on, this article has been included as Introductory in this English Translation Book.
Link : 
http://hkmeher.blogspot.com/2007/08/tapasvini-of-gangadhara-meher-critical.html
*
(3) TAPASVINI-MAHAKAVYAM
(Complete Sanskrit Version of Oriya Kavya Tapasvini).
Sanskrit Article ‘ Tapasvini- Mahakavyam : Ekam Alokanam ’ has been included as Introductory in my Complete Translation of Tapasvini.
Link : 
http://hkmeher.blogspot.com/2011/07/gangadhara-mehers-tapasvini-sanskrit.html
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For more details about Gangadhara Meher’s Tapasvini,
Please see : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/gangadhara-mehers-tapasvini.html
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Complete Hindi ‘Tapasvini’ Kavya :http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/complete-hindi-tapasvini-kavya.html
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Complete English Tapasvini Kavya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/10/tapasvini-kavya-complete-english.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/complete-english-tapasvini.html
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‘Tapasvini’ Mahakavya of Poet Gangadhar Meher (1862-1924).
From Original Odia, Translated in to Hindi, English and Sanskrit :
Complete Works : Link :
http://tapasvini-kavya.blogspot.in/2013/05/complete-tapasvini-kavya-hindi-english.html
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Wednesday, August 24, 2011

‘तपस्विनी’ काव्य चतुर्थ सर्ग- हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Canto-4)

TAPASVINI Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)   
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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Tapasvini [Canto-4] 
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[Canto-4 has been taken from pages 78-89 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : 

Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.] 
*
For Introduction, please see : Tapasvini : Ek Parichaya ' 

Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य    
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर   

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चतुर्थ सर्ग
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समंगल आई सुन्दरी
प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा,
हृदय में ले गहरी
जानकी-दर्शन की तृषा ।
नीहार-मोती उपहार लाकर पल्लव-कर में,
सती-कुटीर के बाहर
आंगन में खड़ी होकर
बोली कोकिल-स्वर में :
‘दर्शन दो, सती अरी !
बीती विभावरी ॥’ (१)

अरुणिमा कषाय परिधान,
सुमनों की चमकीली मुस्कान
और प्रशान्त रूप मन में जगाते विश्वास :
आकर कोई योगेश्वरी
बोल मधुर वाणी सान्त्वनाभरी
सारा दुःख मिटाने पास
कर रही हैं आह्वान ।
मानो स्वर्ग से उतर
पधारी हैं धरती पर
करने नया जीवन प्रदान ॥ (२)

गाने लगी बयार
संगीत तैयार ।
वीणा बजाई भ्रमर ने,
सौरभ लगा नृत्य करने
उषा का निदेश मान ।
कुम्भाट भाट हो करने लगा स्तुति गान ।
[1]   

कलिंग आया पट्टमागध बन, [2]   
बोला बिखरा ललित मधुर स्वन :
‘उठो सती-राज्याधीश्वरि !
बीती विभावरी ॥’ (३)

मुनिजनों के वदन से
उच्चरित वेदस्वन से
हो गया व्याप्त श्यामल वनस्थल ।
पार कर व्योम-मण्डल
ऊपर गूँज उठा उदात्त ॐकार ।
मानो सरस्वती की वीणा-झंकार
विष्णु के मन में भर सन्तोष अत्यन्त
पहुँच गयी अनन्त की श्रुति पर्यन्त ।
धीरे-धीरे जगमगा उठा कानन सारा,
जैसे बल बढ़ने लगा मन्त्र द्वारा ॥ (४)

इसी समय सीता के समीप आकर
कहा मञ्जुल मन्द्रस्वर
ब्रह्मचारिणी अनुकम्पा ने :
‘उठो वत्से विदेह-कुमारी !
पधारी है उषा सुकुमारी ।
देकर अपने दर्शन
प्रसन्न करा ले उसका मन
विधि के अनुसार ।
तमसा राह निहार रही सुख पाने
तुझे गोद में बिठा एक बार ॥’ (५)

पद्मिनी-हृदय-गत शिशिर-बूँद में विद्यमान
खरांशु दिनकर के प्रतिबिम्ब समान,
अपने शोक-जर्जर
मानस-फलक पर
वीर राम का आलेख्य करके अंकन
आसन से खड़ी हो गयीं सती-रतन ।
नमन कर अनुकम्पा के पदद्वय,
उषा-चरणों में वन्दना की सविनय ॥ (६)

करके उसकी प्रशंसा रचना
बोलीं सती जानकी :
‘उषादेवी ! दुनिया में प्रदान करती हो सूचना
अन्धकार-ध्वंसी अंशुमान् के आगमन की ।
ज्योतिष्मान् हैं तुम्हारे मृदुल चरण,
उनमें अटल आशा ले जाती हूँ शरण ।
शुभ्र-सौरभ-रसिके अरी !
रघुवंशी पर बनो शुभंकरी ॥’ (७)

तमसा आश्रम-धात्री
पवित्र-स्रोता सुविमल-गात्री,
निशावसान में समुत्सुक-मन
बिछा आंगन में सुमन,
सींच बिन्दु-बिन्दु सुगन्धित उदक,
जला प्रभाती तारा मंगल दीपक,
मीन-नयनों में बारबार
चञ्चल निहार
सती सीता के शुभागमन की सादर
प्रतीक्षा कर रही थी उधर ॥ (८)

तापस-कन्याओं के आदर-वन्या-प्लावन से
विश्व-धन्या सती-शिरोमणि जानकी
सत्वर चलीं आश्रम-सदन से
अनुकम्पा के सहित,
तमसा-स्रोत में अभिलाषा रख स्नान की ।
तमसा ने सती को पाकर त्वरित
गोद में बिठा सदुलार
आलिंगन किया तरंग-बाहें पसार ॥ (९)

सुधा-मधुर स्वन में
सन्तुष्ट-अन्तःकरण
बोली तमसा :
‘आशा नहीं थी माँ ! मेरे मन में,
राजलक्ष्मी-हृदय-हार सीता सती
भोग-पिपासा सब त्याग
मेरी गोद में विहार करेगी सानुराग ।
लोग कहेंगे मुझे भाग्यवती
तेरे ही कारण
संसार में करके मेरी प्रशंसा ॥ (१०)

घूमती फिरती वन-वन में
गण्ड-कुहुक में न उलझ,
कई बाधाएँ करके पार
अपने निर्मल जीवन में,
न दुःख मान अन्धकार,
प्रकाश न सुख समझ
चली हूँ दूर रास्ते नम्र मस्तक ।
जन्म कर रही हूँ सार्थक
नीर-दान से निरन्तर
सभी तटवासियों के मानस में तृप्ति भर ॥ (११)

उन सारे गुणों से हैं भरी
मेरी तरह मन्दाकिनी और गोदावरी ।
[3]   

फिर भी उन्होंने बढ़ाया है गौरव,
पाकर तेरे पावन चरण-चिह्न अक्षय वैभव
और देवत्व-प्रदायक दुर्लभ
शुभांग-सौरभ ।
उन्हें प्राप्त करने मेरी कामना थी,
उनके बिना मैं लाञ्छित-मना थी ॥ (१२)

किया था मैंने शुभ कर्म आचरण,
धर्म ने मेरे समीप इसी कारण
तुझे पहुँचा दिया समय पर
मेरे हृदय की अभिलाषा समझ कर ।
पायी है मैंने दुर्लभ सम्पदा,
प्राप्त करूंगी तृप्ति सदा
प्रत्यह तुझे बुलाकर
अपनी गोद में लाकर ।
हर लेगा तेरा अंग-सौरभ, अरी माँ !
मेरे जीवन की समस्त कालिमा ॥ (१३)

मेरी गोद में केलि करते सरस,
दलबद्ध हंस सारस
चक्रवाक युगल-युगल
साथ बक सकल ।
तेरे पुण्यमय कलेवर के
क्षालन से पवित्र मेरा सलिल पान करके
ये जीवित रहेंगे मेरे पास
रच नित्य निवास ।
यश तेरा गाते रहेंगे
कलरवों के व्याज इधर,
मेरे श्रवणों में जगाते रहेंगे
सन्तोष निरन्तर ॥ (१४)

पतिव्रता-अंग से लगकर
पवित्र करने अपना कलेवर
त्याग वल्लरी-आवास,
वैरागी पुष्प सकल
दूर-दूर से डूब उछल
बहकर दौड़ते रहेंगे,
फिर मँडराते रहेंगे
आकर तेरे पास ।
कृपामयि ! तू स्नान के समय
सलिल में मेरे,
उन्हें हटाएगी नहीं सदय
चरणों से तेरे ॥ (१५)

मेरे तट पर चरण रखकर
तू विहार करेगी माँ ! सुखकर,
उसी व्याज से करेगी देव-द्युति प्रदान ।
पाकर उसे हरियालीभरे वन्य तरुगण
करेंगे देव-दर्प धारण
और शान्ति विधान ।
पल्लवों में पाटल श्यामल सुन्दर
आभा रहेगी निर्मल निरन्तर ॥’ (१६)

सीता बोलीं : ‘ यह नीर कितना निर्मल,
मधुर जैसे नारिकेल-जल ।
है नहीं नीर यही,
साक्षात् माता का क्षीर सही
पर्वत-उरज से प्रवहमान,
मृतप्राया सीता के लिये अमृत-धारा समान ।
ओह ! इस देश में तू तो है मेरी माँ
तमसा का रूप लेकर यहाँ ।
हो गया है विदीर्ण गहरा
मेरे दुःखों से हृदय तेरा ॥ (१७)

तेरा पृष्ठ-भेद हुआ है दरार से,
दूसरा पार्श्व दृश्यमान ।
फिर भी करने कन्या की तुष्टि विधान,
स्नेह-नयन खोल
प्रीतिभरी मीठी वाणी बोल
चाटु करती तू दुलार से ।
माँ ! धन्य-धन्य हृदय तेरा
मेरे दुःख-आतप के लिये सिकताभरा ॥ (१८)

श्रीराम-साम्राज्य में जो सीता
जन-नयनों में दूषिता चिर-निर्वासिता,
वह तेरे विचार में
दिखला अपना पातिव्रत्य-धर्म बल
पवित्र कर सकेगी संसार में
स्थावर जंगम सकल ।
समझती अपनी
पुत्री का दुःख जननी ।
पुत्री यदि वा दग्ध-वदना,
माता के नैनों में भाती चन्द्रानना ॥ (१९)

निश्चित तेरा तट प्यारा
हो चुका मेरा चिरन्तन सहारा ।
भरोसा तेरे शान्तिमय चरण-कमल ।
जिसके लिये शून्य चराचर सकल,
माता की गोद ही उसके लिये महान्
दुनिया में अपार आदरों की खान ।
माता जिसकी रत्नगर्भा धरित्री,
दूसरा स्थान भला क्यों खोजेगी पुत्री ?’ (२०)

तमसा नीर सुनिर्मल
सुशीतल पवित्र,
उस-जैसा मुनिकन्याओं का चरित्र ।
बन गयी उनका स्वरूप अविकल,
स्नेहोत्कण्ठिता तमसा
प्रतिबिम्ब के व्याज सहसा ।
उन्हें आलिंगन कर उत्सुक-मन
मिला दिया उसने तन से तन ॥ (२१)

इस प्रकार पाकर शुभ अवसर
समीप सीता के रहकर,
निरन्तर निहारने के लिये
बुद्धिमती तमसा ने प्राप्त किये
कई शरीरों में कई नयन,
कई हृदय कई मन ।
समान धर्म से समान गुण से मिल
चित्त बहुगुण प्रसन्न रहता खिल ॥ (२२)

स्नान सम्पन्न करने के बाद
लौटकर पूजे वाल्मीकि-चरण सबने,
प्रदान किया शुभाशीर्वाद
प्रसन्न-मन मुनिवर ने :
‘ज्ञान-धनार्जन से करके साधना
प्राप्त करो उत्तम साफल्य अपना ।’
विशेष रूप से सीता से कहा सादर :
‘वत्से ! वीर-प्रसविनी बनो निडर ॥ (२३)

कर ले वत्से ! पुत्र समान
इन आश्रम-तरुओं का तत्त्वावधान
अपना स्नेह-श्रम प्रदानपूर्वक ।
हो सकेगा तेरा अनुभव सार्थक
स्वभावतः उसी भाव से,
संसार में पुत्र-रत्न दुर्लभ कैसे ।
दूर करने तेरे सभी अभाव इधर
अनुकम्पा रहेंगी तत्पर ॥’ (२४)

मुनिवर की अनुज्ञा से चलीं सब निरलस
पद्म-सुकुमार करों में लेकर कलस ।
कन्याओंके बीच भाती रही कान्ति सीता की,
जैसे स्फटिक-समूह में चमक हीरा की ।
प्रस्थान किया सबने
उपवन के प्रति,
शोभा बढ़ाई कानन ने
पाकर वही सम्पत्ति ॥ (२५)

सीता पधारीं वनलक्ष्मी के द्वार पर,
तब दिनकर-किरण से शोभायमान
वह उल्लसित-अन्तर
बिखरा मधुर मुस्कान
पल्लव-अधरों में
सुन्दर मधुक-दन्तपङ्क्तियों में,
सादर उसी क्षण
हरने लगी अन्तःकरण ।
अर्पण किया रंगशाल्मली-अर्घ्य मंगल
साथ पाद्य दूर्वादल-शिशिर-पटल ॥ (२६)

प्रदान किया स्थलपद्म का आसन,
कहा सारिका-स्वर-छल में
प्रीति-पूरित मधुर स्वागत वचन ।
खिलाकर नव पंकज जल में
शरत्-सरसी भ्रमर-स्वन में जैसे
कहती कलहंसी से,
वनलक्ष्मी बोली
वाणी मधुभरी :
‘तेरे चरण-अरुण से आली !
बीती मेरी वेदना-विभावरी ॥ (२७)

सौभाग्यवश तुझे मैंने पाया,
आकाश-प्रसून सत्य अपनाया ।
समाया मेरे मन में
आनन्द अपार ।
चित्रकूट-उपत्यका में,
सिद्धगण-सेवित दण्डकावन में,
पारावार के उस पार
लंकापुरी की अशोक-वाटिका में,
तुझे अपने सामने
आदर्श मानकर मैंने
चौदह वर्षों तक रची
प्रीति-प्रतिमा सच्ची ॥ (२८)

आ रही थी जब लौट चली
पुष्पकारूढ़ तू गगन-मार्ग पर,
खड़ी मैं तब ले पुष्पाञ्जली
हरिण-नयनों में शोकभर
ऊपर को निहार,
तुझे मयूरी की बोली में पुकार
रही थी बड़ी चाह से,
लम्बी राह से ।
अरी प्यारी !
सहेली की बात मन में करके याद
क्या तू आज पधारी
इतने दिनों बाद ? (२९)

आली ! लम्बी विरह-व्यथा
मैंने विशेष झेल न पाकर सर्वथा
अन्तिम चिन्ता से तापसी-वेश अपनाया,
तेरे हृदय-दर्पण में सस्नेह-रस प्रतिबिम्ब डुबाया ।
तुझे कर लिया वरण
हर्षित-अन्तःकरण ।
धन्यवाद अपार
कर ले स्वीकार,
जो तूने सश्रद्ध पूर्ण की
मेरी कामना हार्दिकी ॥ (३०)

साधु-संग प्राप्त होने से
सद्भाव सदा अटूट रहता,
नभोमण्डल में जैसे
नील रंग की अमिट सत्ता ।
साधु-बन्धु के पास कभी
मनोवाञ्छा होती नहीं निष्फल,
पा सकी मैं इसी कारण अभी
तेरे दर्शन सुमंगल ।
यह सफलता, सखि ! सौभाग्य से मिलती,
तेरे भाव ने मुझे बना दी भाग्यवती ॥’ (३१)

बुझाने सती-हृदय-वन-ग्रासी
प्रखर विरह-दावानल,
मानस में उस पल
मधुमोहिनी वही
कानन-लक्ष्मी भाती रही
नवोदित मेघमाला-सी ।
बोलीं जनक-कुमारी
स्नेहमय वचन :
‘तेरे कारा में, अरी प्यारी !
मैं बन्दिनी बन गई आजीवन ॥’ (३२)
= = = =


(पादटीका :
[1] कुम्भाट = पक्षीविशेष ।
[2] कलिंग = पक्षीविशेष ।
[3] मन्दाकिनी = चित्रकूट की एक गिरिनदी ।)
* * * *   

(तपस्विनी काव्य का चतुर्थ सर्ग समाप्त)
= = = = = =


[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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Complete ‘Tapasvini’ (Hindi-English-Sanskrit Versions)
Link:
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