Original Oriya Mahākāvya ‘TAPASVINĪ’ of Poet Gańgādhara Meher (1862-1924).
Complete Tri-lingual Translations (in Hindi, English and Sanskrit)
By : Dr. Harekrishna Meher.
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Complete Hindi Version of ‘ TAPASVINĪ ’ is presented here.
Hindi Translation Book ‘Tapasvinī’ by Dr. Harekrishna Meher.
Published by :
Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.
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[All Eleven Cantos have been taken here from this Hindi Book.]
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Hindi Tapasvinī Mahākāvya
[Contents]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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ग्रन्थ-सूची
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प्राक्कथन :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/tapasvini-kavya-praak-kathan.html
तपस्विनी : एक परिचय :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/09/tapasvini-ek-parichaya-drharekrishna.html
मुखबन्ध :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/hindi-tapasvini-preface.html
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प्रथम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/hindi-tapasvini-kavya-canto-1.html
द्वितीय सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/hindi-tapasvini-canto-2.html
तृतीय सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011_08_01_archive.html
चतुर्थ सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/tapasvini-kavya-canto-4.html
पञ्चम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/hindi-tapasvini-canto-5.html
षष्ठ सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/09/hindi-tapasvini-kavya-canto-6.html
सप्तम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011_09_01_archive.html
अष्टम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/11/hindi-tapasvini-kavya-canto-8.html
नवम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/11/hindi-tapasvini-kavya-canto-9.html
दशम सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/09/hindi-tapasvini-kavya-canto-10.html
एकादश सर्ग :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/11/hindi-tapasvini-kavya-canto-11.html
= ** सम्पूर्ण ** =
[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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Other Related Links :
Complete English ‘TAPASVINI’ Kavya : HKMeher Blog :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/10/tapasvini-kavya-complete-english.html
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Complete English ‘TAPASVINI’ Kavya : Tapasvini Blog :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/complete-english-tapasvini.html
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Complete Hindi ‘Tapasvini’ Kavya in HKMeher Blog :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/complete-hindi-tapasvini-kavya.html
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Gangadhara Meher’s Tapasvini Kavya : A Glimpse :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/11/poet-gangadhara-mehers-tapasvini-kavya.html
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Articles on My Hindi-English-Sanskrit Translations of Tapasvini Kavya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/my-hindi-english-sanskrit-articles-on.html
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Monday, November 28, 2011
Saturday, November 26, 2011
Hindi Tapasvini Kavya Canto-11 (‘तपस्विनी’ काव्य एकादश सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर)
TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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Tapasvini [Canto-11]
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[Canto- 11, the Last Canto of this epic poem, has been taken from pages 191-214 of
my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya '
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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एकादश सर्ग
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एक दिन मेदिनी प्रदक्षिण कर
श्रम-क्लान्त दिनकर
क्षीणतेज - शरीर
नील नीर में पश्चिम वारिधि के
डूब गये गभीर,
अभिलाषी अवगाहन-विधि के ॥
छोड़ न पाकर अपना प्रियतम,
अत्यन्त दीन-कलेवर
एक पल भी रहने अक्षम
दिवस चला उनके पीछे सत्वर ॥
पति बिना पत्नी की अवस्था
क्या होती सर्वथा,
भोलीभाली नलिनी-बाला ने यह न जानकर
त्यागा नहीं अपना घर ॥
पलभर में लूटकर
रंगीन वास-कोष उसीका,
प्रदोष ने बना दिया अम्बर पर
पादास्तरण रजनी का ॥
इस प्रकार देखकर
कोमलांगी कमलिनी का अपमान,
शिरीष पादप लज्जा-जर्जर
हो गया अत्यन्त म्लान ॥
सूर्यास्त में सम्पन्न कर
अग्निदेव की सपर्या
महामना वाल्मीकि ने सादर
शिव-कृपा का स्मरण किया ॥
आश्रम में कुशासन पर
विराजे थे मुनिवर ।
सोच रहे थे मन-ही-मन
श्रीराम का सुशासन ।
साथ ही विषय
कुमारों की योग्यता का,
फिर कैसे होगा परिचय
पुत्रों के सहित पिता का ॥
‘धनुर्वेद और राजधर्म की शिक्षा के द्वार
इसी समय पहुँच चुके हैं युगल कुमार ।
तापसों के संग उभय
जब कानन में रहेंगे,
मूल्यवान् समय
तो व्यर्थ बीत जाएंगे ॥
यदि राजधर्म में कुशल
हो न पाएंगे राजकुमार,
समस्त गुण हो जाएंगे निष्फल
बन्ध्य पादप जिस प्रकार ॥
वीरत्व-विभूषण से इसी समय
मण्डित न होंगे यदि ये,
दुःसह दूषण आन पड़ेगा निश्चय
वीर-वंश के लिये ॥
कौन कह सकेगा,
दायाद-रत्न श्रीराम का
एक दिन नहीं खोजेगा
राजसिंहासन कोशल-धाम का ॥
राजसम्मान-रक्षा की क्षमता
उसी समय यदि न रहेगी,
उनकी नीति-अधमता
प्रकटित हो जाएगी ।
कैसे बिना आदर्श के युगल सहोदर
उसमें प्रवीण बनेंगे यहीं वन में रहकर ?
होते सभी दान-वीर
रघुवंशी नरेशगण विशेषरूप से ।
वही आदर्श ऋषि-कुटीर
सिखला सकेगा कैसे ?
अविकल रामरूप प्रतिबम्बाकार
अवयवधारी हैं युगल कुमार ।
दर्शन से ही रघुकुल-शेखर
अपने पुत्रों को पहचान लेंगे सत्वर ।
वहाँ वीर शत्रुघन
कर देंगे संशय मोचन ॥
पहुँचा देने पर पुत्र-युगल को वहीं
श्रीरामचन्द्र करेंगे स्वीकार,
तब हमारी होगी नहीं
निन्दा किसी भी प्रकार ॥
परन्तु अपनी प्रियतमा पत्नी को
पतिव्रता सती जानकर सही,
लोकापवाद-भय से ही
उन दोहदिनी को
भेज दिया निर्दय राजा ने
कानन में दोहद-पूरण के बहाने ॥
बारह वर्षों के अनन्तर
सन्तान की ममता
जन्मेगी उनके हृदय के भीतर,
यह सम्भव नहीं लगता ।
प्रजा के प्रति हैं किये
उन्होंने सारे पुत्र-प्रेम समर्पित ।
उसकी सम्मति इसलिये
अभी चाहेंगे निश्चित ॥
अपने विश्वास पर
जिनकी है नहीं आस्था,
उन्हें सहस्र बार कहकर
समझाने से क्या होगा सर्वथा ?
इसी विषय पर परामर्श अवश्य चाहिये
महामुनि वसिष्ठ और लक्ष्मण को संग लिये ॥’
इसी समय राजदूत ने
कृताञ्जलि हस्त से अपने,
पत्र प्रदान किया वाल्मीकि-कर में सत्वर
चरणों में प्रणिपात कर ॥
पत्र-पाठ पश्चात् मुनीन्द्र को चला पता
इष्ट सिद्धि हेतु मिल गया रास्ता ।
भेजा है निमन्त्रण राजा रघुवर ने
अश्वमेध याग में योगदान करने ॥
सोचने लगे मुनिवर,
‘विधि ने अनुकूल होकर
दिखलाया तट
भावना-पयोधि के निकट ॥
मुनिकुमार-वेश में शिष्यों के बहाने
लव-कुश को ले चलेंगे यज्ञ दिखलाने ।
यज्ञ-क्षेत्र में स्थान-स्थान करके भ्रमण
दोनों गायेंगे मधुर नव्य काव्य रामायण ॥
प्रीति-सुधा बरसाकर श्रीराम-आख्यान
अवश्य हर लेगा लोगों का चित्त ।
निहार युगल कुमार श्रीराम-समान
लोग राम-पुत्र ज्ञान करेंगे निश्चित ॥
स्वयं रघुवंश-शेखर
अपने प्रतिबिम्ब-रूप दर्शन कर
डुबा देंगे हृदय
प्रेम-पीयूष-कूप में निश्चय ॥
यदि कुण्ठित होंगे रघुकुल-तिलक
स्वीकारने अपने दोनों बालक,
उधर देवी कौशल्या
भू-लुण्ठित नहीं होंगी क्या ?
सीता का स्पर्श नहीं कर सका दशानन,
रामायण से सुन यह विवरण
होगा आनन्द-मगन
समस्त जनों का अन्तःकरण ॥
सती जनक-दुहिता
हो चुकी हैं अग्नि-परिक्षिता ।
इस कथा का श्रवण कर
पुलकित होगा नहीं किसका कलेवर ?
रामायण काव्य करेगा
भारती-ज्योति का विस्तार ।
त्रिभुवन से हट जायेगा
लोक-निन्दा का अन्धकार ॥’
मन-ही-मन इस प्रकार
मुनिवर ने किया विचार ।
हो उठा प्रफुल्ल अतिशय
आनन्द से उनका हृदय ॥
मधुर वचनों में उधर
राजदूत को विश्राम की अनुज्ञा देकर,
शिष्यगण को नियोजित किया
निभाने अतिथि-सत्क्रिया ॥
सानन्द मुनीन्द्र ने तदुपरान्त
सीता के पास चल बताया अश्वमेध-वृत्तान्त,
‘वत्से ! श्रीराम-दूत इधर
आया है निमन्त्रण लेकर ।
संग ले शिष्य-दल
प्रस्थान करूंगा कल ॥
उनके साथ शिष्यरूप हमारे
चलेंगे लव कुश प्यारे ।
कई मुनिजनों के करेंगे दर्शन
और पाएंगे आशीर्वचन ॥’
सती मैथिली ने समर्थन किया
महर्षि-दत्त प्रस्ताव का ।
उन्हें दृढ़ रूप से सौंप दिया
सारा दायित्व कुश-लव का ॥
अन्तेवासियों से तदुपरान्त
कहा मुनिशेखर ने :
‘जब होगा निशान्त
यात्रा करेंगे अश्वमेध अध्वर देखने ।
लव कुश के संग समस्त सहाध्यायी कुमार
पाथेय साथ ले जाओगे हो तैयार ॥
बाबा कुश लव ! साथ वीणा लेते रहोगे,
सुसंगीत संग शिक्षा सार्थक करोगे ।
जो श्रीराम हैं नायक
रामायण काव्य के,
हो चुके हैं हर्ष-दायक
तुम्हारे हृदय के,
वही श्रीराम सद्गुण-निधान
कर रहे हैं महायज्ञानुष्ठान ।
कई देशों से महानुभावगण
करेंगे उधर पदार्पण ॥
पधारे होंगे विभीषण
लंकापुरी-विभूषण,
असुर-संघ संग लेकर
लाँघ सुविशाल सागर ॥
भले-भले भल्लुक प्लवंग
अंगद-प्रमुख चल,
आये होंगे सुग्रीव के संग
खुशियों से मलकर वदन-मण्डल ॥
जो समझते लोष्ट-खण्ड-सा सानुमान्,
वही महावीर हनुमान्
अमित-बलवान्
विहरते होंगे वहीं सिंह-समान,
सानन्द सजाकर हृदय पर मुक्ताहार
सीता-प्रदत्त उपहार ॥
नाना-विहंग-लोममालाओं से सुन्दर
अलंकृत कर अपना अपना अंग,
आये होंगे अनेक शबर
निषादराज गुहक के संग ॥
जिन्होंने भ्रातृभक्ति-बल द्वारा
अनायास ठुकरा दिया आलिंगन प्यारा
दुर्लभ राजलक्ष्मी का,
स्थापित कर अग्रज की पादुका
राजसिंहासन पर
फलमूलाहार से बिताये चौदह वत्सर,
ऊँचा किया जीवन
जटाजूट बाँधकर,
जिसे निहारता ऊर्ध्व-वदन
हिमगिरि का तुंग शिखर,
होंगे वही भरत
वहीं श्रीराम के अनुगत,
आकाश में राकेश के समान
कीर्त्ति-कान्तिमान् ॥
क्षणजन्मा लक्ष्मण को देखोगे वहीं
संसार में जिनके सदृश दूसरा कोई नहीं ।
स्वयं वज्र-हस्त
जिसके भय से थे त्रस्त,
उस मेघनाद का घमण्ड सकल
उन्होंने पैरों से दिया है कुचल ॥
मेघनाद-निधन की खबर
कालाग्नि बन
धधक उठी प्रखर
समाकर रावण के हृदय में गहन ।
संग-संग अंग-बल की आहुति डाल
असुरेश्वर ने बना दिया उसे उग्रतर कराल ।
तपाकर उसमें प्रदीप्त शक्ति क्रोधभर
निक्षेप किया वीर लक्ष्मण पर ॥
शक्तिघात-जनित क्षतों का लक्षण
अपने उर पृष्ठ पर
धारण करके वे वीरवर
यथार्थ-नामा हैं ‘लक्ष्मण’ ॥
अक्षियों से देखोगे सामने
जो अक्षरों से देखा है तुमने ।
करोगे सबकी कथा गान
सबके सम्मुख विद्यमान ॥
श्रवण करेंगे वहाँ संगीत सुस्वर
शत-शत नरेश्वर,
साथ तपस्तेज से दीप्त-कलेवर
शत-शत यतिवर ॥
परिचय यदि कोई पूछेंगे उधर
तुम बोलोगे अवश्य :
‘हम युगल सहोदर
महर्षि वाल्मीकि के शिष्य ॥’
बुलायेंगे यदि रघुनन्दन
उनके समक्ष करोगे रामायन गायन ।
वे कौतूहलपूर्ण -हृदय
पूछेंगे यदि तुम्हारा परिचय
तुम दोनों दोगे उत्तर :
‘वाल्मीकि-शिष्य हम युगल सहोदर ॥’
यदि राजा रघुनन्दन
प्रदान करेंगे धन,
लोभ त्याग कर तुम उभय
बोलोगे सविनय :
‘हम क्या करेंगे नरेश्वर !
तापस-कुटीर में धन लेकर ?’
वाल्मीकि-मुख से करके श्रवण
वार्त्ता अश्वमेध-यज्ञ-विधि की,
वैदेही के हृदय में उसी क्षण
जाग उठी व्यथा आकस्मिकी ॥
सीता लगीं सोचने :
‘निश्चित ही रघुकुल-चन्द्र ने
बिठायी गोद में अपनी
लाकर द्वितीया पत्नी ॥
धन्य वही सीमन्तिनी
सौभाग्य-शालिनी,
जिनके तपोवृक्ष में फल बने आकर
सगर-कुल-सागर के कलाकर ॥
कहाँ किसप्रकार कौन-सी
घोर तपस्या की उन्होंने ?
अन्तःकरण मेरा अत्यन्त लालसी
उस तपश्चरण में प्रवृत्त होने ॥
कौन करेगा मुझे सूचित
उस तपश्चर्या का नियमादिक ?
करूंगी तपश्चरण निश्चित
उसीसे भी कठोर अधिक ॥
किसको पता उनकी पूर्व तपस्या का रहस्य ?
वसिष्ठ आदि महर्षिवृन्द जानते होंगे अवश्य ।
अन्यथा उन्हें महारानी चुनी कैसे ?
प्रभु ने किया होगा परिणय उनके मत से ।
तब किसी भी उपाय का प्रयोग कर
लाऊंगी निश्चय वही गुप्त मन्तर ॥’
मन में करके ऐसी भावना
सती ने आरम्भ किया विनय-पत्र लिखना :
‘शरण-वत्सल -केतन,
बैरी-वारणांकुश भीषण,
दुःख-पर्वत-पवि दर्शन
करते जिनमें ज्ञानीगण,
राजराजेश्वर के उन पावन
चरणारविन्द में करती वन्दन
यह दीन भिक्षुका
दूर से अपना शीश झुका ॥
मधु-आशा का अन्धकार
भेदन करने किसी प्रकार
कान्तार में रहकर कातर-मन
प्रेषित करती यह निवेदन ॥
हयमेध महायज्ञ में महाराज
आप स्वयं दीक्षित हो चुके ।
दर्शन दे रही होंगी आज
नवीना वामा वामांक में प्रभु के ॥
मुग्ध होंगी मुग्धा वल्लभी,
यही विचार करके
शत-गुणित बढ़ते होंगे अभी
सद्गुण आपके ॥
महाक्रतु में प्रदान करेंगे आप अनन्त धन
रत्न-राशि क्षौम वसन ।
पूर्ण होगी वहीं याचक-जनों की कामना ।
जागी है मेरे मन में एक याचना ॥
प्रदान करने यही भिक्षा नगण्य
कृपया आपका न होगा कार्पण्य ।
आप तो स्वयं हैं अपार
दया-रत्नमय दान-पारावार ॥
मैं कौन, जानने की नहीं आवश्यकता,
आप सदा तापसों के अशान्ति-हर्त्ता ।
रहता नहीं तापसों के प्रति
आपका अदेय कुछ ।
मैं तपस्विनी सम्प्रति,
आप न समझेंगे मुझे तुच्छ ॥
आपकी अंक-योग्या सुभगा
जो बनी हैं आज,
सभक्तिक दर्शन कर रहा होगा
जिन्हें जगत का जन-समाज,
कौन-सी घोर तपश्चर्या
पहले कभी उन्होंने की ?
कितने काल तक किधर
किस मन्त्र का जप कर ?
केवल इतनी ही सुदया
करेंगे प्रभु मुझे बताने की ।
अन्य कोई भी धन
नहीं आवश्यक मेरे लिये, हे राजन् ! ॥
कोटि अश्वमेध अध्वरों में दान
की जाती जितनी सम्पदा,
उसीसे भी समझूंगी अधिक महान्
मेरे विचार में उसे सदा ॥
और एक बात का है निवेदन,
अति अबोध हैं इस दुःखिनी के युगल नन्दन ।
पिता के अंक में उपवेशन का
सौभाग्य नहीं उनका ।
जन्म से ही ये कुमार
जानते नहीं पिता का प्यार ॥
जानते हैं रुलाने जननी का जीवन
वीणा-तन्त्री संग करके रामायण गायन ।
कौन रोएगा नहीं फिर
करके मानव-हृदय धारण ?
जिसे सुन हो जाते अस्थिर
वल्लरी-पादप-गण ॥
आपके चरित से स्वयं मोहित होकर
जा रहे हैं महर्षि के साथ दोनों सहोदर ।
दर्शन करने आपके पाद-पद्म पावन
खींच ले रहा उन्हींका मन ॥
आपके अतीत दुःखों की कथा
सुनाएंगे दोनों भ्राता,
जिसे श्रवण कर सर्वथा
हृदय इस दुःखिनी का विदीर्ण हो जाता ॥
श्रवण न करने से उसकी ओर
मन सदा दौड़ता रहता ।
दमित नहीं की जा सकती जोर
उसकी उत्सुकता ॥
हे धीर-धुरन्धर !
उसी कथा को लेकर
यदि आपका श्रवण
दिलाएगा दीना वैदेही का स्मरण,
स्वप्न ही समझ लेंगे आप उसी का प्यार
नयी प्रणयिनी का प्रफुल्ल वदन निहार ॥’
लिख रही थीं पत्र इसी तरह
विकल-हृदया सती ले अपनी गाथा ।
नेत्रनीर-झर से वह
धौत हो रहा था ॥
और लिखूंगी क्या ?
सोच रही थीं बैठ रामप्रिया ।
सहर्ष हँसते-हँसते वहाँ
पहुँच गये कुश लव ;
बोले : ‘ माँ माँ !
धन्य धन्य वे राघव,
धन्या उनकी प्रणयिनी
सती सौभाग्य-शालिनी ॥
श्रीरामचन्द्र कौशल्या-पुत्र
प्रारम्भ कर रहे हयमेध अध्वर ।
साथ ले निमन्त्रण पत्र
एक दूत आया है इधर ॥
दूत से पूछकर जाना हमने इसप्रकार,
रामचन्द्र के कारण आज धन्य यह संसार ।
लोकापवाद उन्होंने मिटा दिया
त्यागकर सीता, अपनी प्राणप्रिया ॥
हयमेध यज्ञ में समीप अपने
रघुकुल-प्रदीप ने
सहधर्मिणी के स्थान है स्थापित की
कनक-मूर्त्ति जानकी ॥
जननी ! दुर्लभ थी क्या
उनके लिये कोई प्रिया ?
कामना उन्होंने नहीं की
द्वितीया पत्नी की ॥
कहाँ गयीं माँ ! सती जनक-तनया ?
जीवित न होंगी क्या ?
इस विषय का ज्ञान हमें
प्राप्त हो न सका रामायण में ॥
माँ ! चलेंगे दोनों भ्राता हम
श्रीराम के कमल-चरण दर्शन करेंगे ।
कह रहे हैं मुनिसत्तम,
हमें संग ले चलेंगे ॥’
पुत्र-युगल के रसान्वित
वचनामृत-सिन्धु की ऊर्मियों ने उछल
कर दिया मज्जित
सीता के जीवन को उस पल ।
था सती का हृदय
जैसे तप्त-सिकतामय ।
प्लावित हो गया उधर
बरसा जब राम-प्रेम का जलधर ॥
मन-ही-मन कहने लगीं सती,
‘हाय ! मैं चिर-पापाचारिणी,
लिख रही थी भारती
प्रभु-हृदय की सन्ताप-कारिणी ॥
मैं तो अबला दुर्बल-हृदया अत्यन्त,
मेरे प्रभु का अनुग्रह अथाह अनन्त ।
प्रभो ! क्षमा-पारावार अगाध !
क्षमा कीजिये मेरा अपराध ।
विधि ने मुझे बना दिया इस पल
आपके हृदय का गरल ॥’
पत्र छुपा तदनन्तर
बोलीं जानकी हर्ष व्यक्त कर :
‘ जाओ प्यारे युगल नन्दन !
करने महाराज के पद-सरोज दर्शन ॥
कह रहे थे तात
वहीं तुम दोनों भ्रात
करोगे संगीत गान ।
स्वभाव से वह तो सुधा-समान ॥
पुण्यमय यज्ञ-क्षेत्र में
वह अमृत-प्रवाह बन
प्रत्येक हृदय-परिसर में
व्याप्त हो जाएगा सघन ॥
तुम्हें बुलाएंगे यदि रघुवंश-प्रदीप,
जाओगे उनके समीप
तुम युगल भ्रात,
करोगे चरणों में सभक्तिक प्रणिपात ॥
उधर देखोगे उनके अनुज-त्रय,
चरणों में उनके प्रणाम करोगे सविनय ।
तुम युगल सहोदर
राजमाताओं के पद-सरोज-रज पावन,
लगाकर मस्तक पर
सफल करोगे अपना जीवन ॥
उन तीनों के समीप आसीन
होंगी सीता की भगिनियाँ तीन ।
चरणों में उनके तुम युगल सहोदर
सीता-सी उन्हें मान प्रणाम करोगे सादर ॥
‘तुम दोनों किसके तनय ?’
यदि पूछेंगे कोई परिचय,
वहाँ दोगे उत्तर :
‘तपस्विनी-धन हम युगल सहोदर ॥’
इसप्रकार वचन से जननी के,
आनन्दित हो उठे नन्दन युगल ।
भर गया मन में उन्हींके
नवल कौतुहल ॥
न रहा भोजन शयन में आदर ;
उनके हृदय के भीतर
नृत्य करने लगी सर्वथा
श्रीराम की गौरव-गाथा ।
कथालाप कर राम-प्रसंग परस्पर
आ गये निद्रा की गोद में दोनों सहोदर ॥
जानकी का जीवन बहता रहा
पतिभक्ति-सरिता-धारा में प्रखर ।
आवर्त्त में भ्रमता रहा
वहाँ अस्थिर होकर ॥
उसे गोद में बिठाने
हुआ नहीं निद्रा का बल ।
इसलिये बताया उसने
योगमाया के समीप चल ॥
कहा : ‘देवीजी ! आज जीवन रामवधू का
मानवी हृदय-सीमा अतिक्रम कर चुका ।
बारह वर्षों तक
बरसाकर लोतक
भिगाकर अपनी शय्या
सीता जनक-तनया
धीरे से आती थी किसी भी प्रकार
मेरे अंक में एक बार ॥
मधुर वाणी में आज बारबार
कितना दे रही हूँ पुकार ।
परन्तु सती कुछ न श्रवण कर
स्वर्ग-राज्य की ओर है अग्रसर ॥
इस पल नेत्र-प्रतिमा पुत्र-युगल
हो जायेंगे उसकी आँखों से ओझल ।
उसके लिये दशों दिशायें सारी
हो जायेंगी अन्धकारभरी ।
सुख-सूर्योदय नहीं
उसके इस जीवन में कहीं ॥
पतिव्रता बनी मैथिली,
परन्तु उसे क्या सुफलता मिली ?
दुःखिनी देख सके अवश्य,
समुज्ज्वल कर दो उसका भविष्य ॥
प्राण-आलबाल में नयनों का पानी डाल
पाया अबला ने पतिभक्ति का उद्यान विशाल ।
वहीं न फूल खिला,
न कोई फल मिला ।
कहो तो उसका जीवन अपना
होगा घोर व्याकुल कितना ?’
योगमाया बोलीं : ‘चलो री सहचरी !
ढलने जा रही शीतल विभावरी ।
सीता के समीप जाकर
हम दोनों अभी सत्वर
उसका भविष्य-रहस्य
प्रकट कर देंगी अवश्य ॥’
तुरन्त निद्रा के संग योगमाया आयीं,
सीता की पर्णकुटी के अन्दर समायीं ।
दिव्य ज्योति से वनस्थल
उठा जगमगा ।
दिव्य सौरभ से महीतल
महकने लगा ॥
पाकर वही सौरभ मन्द-मन्द
जानकी के जीवन में भर गया पुलक ।
ज्योति-प्रभाव से हो गयी बन्द
उनके नयनों की पलक ॥
आया दृश्य यही,
ज्योतिर्मयी विराजी हैं जानकी ।
धरती है जगमगा रही
ज्योति से उनकी ॥
स्वयं मैथिली को साथ लेकर
रत्न-सिंहासन पर
विराजमान हैं प्रसन्न-वदन
ज्योतिर्मय श्रीरघुनन्दन ।
कुश बैठे हैं गोद में पिता की
और लव गोद में सीता की ।
समीप करके छत्र धारण
विद्यमान लक्ष्मण ऊर्मिला-रमण ॥
चन्द्रकिरण-सा शुभ्र सुन्दर चामर
चला रहे भरत स्वधर्म पालन कर ।
मयूर-चन्द्रिका-विरचित व्यजन
ले अपने हाथ झल रहे शत्रुघन ॥
भविष्य-मुख में सबकी जीवन-ज्योति प्रखर
बह रही सरिता का स्रोत बनकर ।
कोटि-कोटि नर नारी सभी मान
पुण्य तीर्थ महान्,
कर रहे हैं उस पावन
प्रवाह में अवगाहन ॥
सुदूर काल-समुद्र की ओर
चल रही जोर,
प्रतिक्षण अपना आकार
बढ़ाकर वही धार ॥
ऊपर से सभी अमर विद्याधर
बरसा रहे सुमन मनोहर ।
अमरों के संग दानव
नाग, अप्सरा, मानव
सबके ‘जय सीताराम’
उच्चार से व्याप्त हो गया धराधाम ॥
घर-घर में, प्राण-प्राण में, नगर-नगर में,
सरिता-नाव में, सागर-पोत में, कन्दर-कन्दर में,
दिन में, रात में,
प्रदोष में, प्रभात में,
सुख में, दुःख में,
धनी निर्धन सभीके हृदय में
‘जय सीताराम’
ध्वनि गूँज उठी है अविराम ।
मुग्ध हो गयीं निहार यही
सती-रमणी-कुल-शिरोमणि वैदेही ॥
* * * *
(तपस्विनी का एकादश सर्ग समाप्त)
= = = = = =
* स्वभावकवि-गंगाधर मेहेर-प्रणीत
ओड़िआ महाकाव्य ‘’तपस्विनी” का
डॉ. हरेकृष्ण मेहेर-कृत हिन्दी अनुवाद
सम्पूर्ण *
॥ श्रीः ॥
* * * * *
[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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Tapasvini [Canto-11]
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[Canto- 11, the Last Canto of this epic poem, has been taken from pages 191-214 of
my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ' Tapasvini : Ek Parichaya '
Link : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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एकादश सर्ग
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एक दिन मेदिनी प्रदक्षिण कर
श्रम-क्लान्त दिनकर
क्षीणतेज - शरीर
नील नीर में पश्चिम वारिधि के
डूब गये गभीर,
अभिलाषी अवगाहन-विधि के ॥
छोड़ न पाकर अपना प्रियतम,
अत्यन्त दीन-कलेवर
एक पल भी रहने अक्षम
दिवस चला उनके पीछे सत्वर ॥
पति बिना पत्नी की अवस्था
क्या होती सर्वथा,
भोलीभाली नलिनी-बाला ने यह न जानकर
त्यागा नहीं अपना घर ॥
पलभर में लूटकर
रंगीन वास-कोष उसीका,
प्रदोष ने बना दिया अम्बर पर
पादास्तरण रजनी का ॥
इस प्रकार देखकर
कोमलांगी कमलिनी का अपमान,
शिरीष पादप लज्जा-जर्जर
हो गया अत्यन्त म्लान ॥
सूर्यास्त में सम्पन्न कर
अग्निदेव की सपर्या
महामना वाल्मीकि ने सादर
शिव-कृपा का स्मरण किया ॥
आश्रम में कुशासन पर
विराजे थे मुनिवर ।
सोच रहे थे मन-ही-मन
श्रीराम का सुशासन ।
साथ ही विषय
कुमारों की योग्यता का,
फिर कैसे होगा परिचय
पुत्रों के सहित पिता का ॥
‘धनुर्वेद और राजधर्म की शिक्षा के द्वार
इसी समय पहुँच चुके हैं युगल कुमार ।
तापसों के संग उभय
जब कानन में रहेंगे,
मूल्यवान् समय
तो व्यर्थ बीत जाएंगे ॥
यदि राजधर्म में कुशल
हो न पाएंगे राजकुमार,
समस्त गुण हो जाएंगे निष्फल
बन्ध्य पादप जिस प्रकार ॥
वीरत्व-विभूषण से इसी समय
मण्डित न होंगे यदि ये,
दुःसह दूषण आन पड़ेगा निश्चय
वीर-वंश के लिये ॥
कौन कह सकेगा,
दायाद-रत्न श्रीराम का
एक दिन नहीं खोजेगा
राजसिंहासन कोशल-धाम का ॥
राजसम्मान-रक्षा की क्षमता
उसी समय यदि न रहेगी,
उनकी नीति-अधमता
प्रकटित हो जाएगी ।
कैसे बिना आदर्श के युगल सहोदर
उसमें प्रवीण बनेंगे यहीं वन में रहकर ?
होते सभी दान-वीर
रघुवंशी नरेशगण विशेषरूप से ।
वही आदर्श ऋषि-कुटीर
सिखला सकेगा कैसे ?
अविकल रामरूप प्रतिबम्बाकार
अवयवधारी हैं युगल कुमार ।
दर्शन से ही रघुकुल-शेखर
अपने पुत्रों को पहचान लेंगे सत्वर ।
वहाँ वीर शत्रुघन
कर देंगे संशय मोचन ॥
पहुँचा देने पर पुत्र-युगल को वहीं
श्रीरामचन्द्र करेंगे स्वीकार,
तब हमारी होगी नहीं
निन्दा किसी भी प्रकार ॥
परन्तु अपनी प्रियतमा पत्नी को
पतिव्रता सती जानकर सही,
लोकापवाद-भय से ही
उन दोहदिनी को
भेज दिया निर्दय राजा ने
कानन में दोहद-पूरण के बहाने ॥
बारह वर्षों के अनन्तर
सन्तान की ममता
जन्मेगी उनके हृदय के भीतर,
यह सम्भव नहीं लगता ।
प्रजा के प्रति हैं किये
उन्होंने सारे पुत्र-प्रेम समर्पित ।
उसकी सम्मति इसलिये
अभी चाहेंगे निश्चित ॥
अपने विश्वास पर
जिनकी है नहीं आस्था,
उन्हें सहस्र बार कहकर
समझाने से क्या होगा सर्वथा ?
इसी विषय पर परामर्श अवश्य चाहिये
महामुनि वसिष्ठ और लक्ष्मण को संग लिये ॥’
इसी समय राजदूत ने
कृताञ्जलि हस्त से अपने,
पत्र प्रदान किया वाल्मीकि-कर में सत्वर
चरणों में प्रणिपात कर ॥
पत्र-पाठ पश्चात् मुनीन्द्र को चला पता
इष्ट सिद्धि हेतु मिल गया रास्ता ।
भेजा है निमन्त्रण राजा रघुवर ने
अश्वमेध याग में योगदान करने ॥
सोचने लगे मुनिवर,
‘विधि ने अनुकूल होकर
दिखलाया तट
भावना-पयोधि के निकट ॥
मुनिकुमार-वेश में शिष्यों के बहाने
लव-कुश को ले चलेंगे यज्ञ दिखलाने ।
यज्ञ-क्षेत्र में स्थान-स्थान करके भ्रमण
दोनों गायेंगे मधुर नव्य काव्य रामायण ॥
प्रीति-सुधा बरसाकर श्रीराम-आख्यान
अवश्य हर लेगा लोगों का चित्त ।
निहार युगल कुमार श्रीराम-समान
लोग राम-पुत्र ज्ञान करेंगे निश्चित ॥
स्वयं रघुवंश-शेखर
अपने प्रतिबिम्ब-रूप दर्शन कर
डुबा देंगे हृदय
प्रेम-पीयूष-कूप में निश्चय ॥
यदि कुण्ठित होंगे रघुकुल-तिलक
स्वीकारने अपने दोनों बालक,
उधर देवी कौशल्या
भू-लुण्ठित नहीं होंगी क्या ?
सीता का स्पर्श नहीं कर सका दशानन,
रामायण से सुन यह विवरण
होगा आनन्द-मगन
समस्त जनों का अन्तःकरण ॥
सती जनक-दुहिता
हो चुकी हैं अग्नि-परिक्षिता ।
इस कथा का श्रवण कर
पुलकित होगा नहीं किसका कलेवर ?
रामायण काव्य करेगा
भारती-ज्योति का विस्तार ।
त्रिभुवन से हट जायेगा
लोक-निन्दा का अन्धकार ॥’
मन-ही-मन इस प्रकार
मुनिवर ने किया विचार ।
हो उठा प्रफुल्ल अतिशय
आनन्द से उनका हृदय ॥
मधुर वचनों में उधर
राजदूत को विश्राम की अनुज्ञा देकर,
शिष्यगण को नियोजित किया
निभाने अतिथि-सत्क्रिया ॥
सानन्द मुनीन्द्र ने तदुपरान्त
सीता के पास चल बताया अश्वमेध-वृत्तान्त,
‘वत्से ! श्रीराम-दूत इधर
आया है निमन्त्रण लेकर ।
संग ले शिष्य-दल
प्रस्थान करूंगा कल ॥
उनके साथ शिष्यरूप हमारे
चलेंगे लव कुश प्यारे ।
कई मुनिजनों के करेंगे दर्शन
और पाएंगे आशीर्वचन ॥’
सती मैथिली ने समर्थन किया
महर्षि-दत्त प्रस्ताव का ।
उन्हें दृढ़ रूप से सौंप दिया
सारा दायित्व कुश-लव का ॥
अन्तेवासियों से तदुपरान्त
कहा मुनिशेखर ने :
‘जब होगा निशान्त
यात्रा करेंगे अश्वमेध अध्वर देखने ।
लव कुश के संग समस्त सहाध्यायी कुमार
पाथेय साथ ले जाओगे हो तैयार ॥
बाबा कुश लव ! साथ वीणा लेते रहोगे,
सुसंगीत संग शिक्षा सार्थक करोगे ।
जो श्रीराम हैं नायक
रामायण काव्य के,
हो चुके हैं हर्ष-दायक
तुम्हारे हृदय के,
वही श्रीराम सद्गुण-निधान
कर रहे हैं महायज्ञानुष्ठान ।
कई देशों से महानुभावगण
करेंगे उधर पदार्पण ॥
पधारे होंगे विभीषण
लंकापुरी-विभूषण,
असुर-संघ संग लेकर
लाँघ सुविशाल सागर ॥
भले-भले भल्लुक प्लवंग
अंगद-प्रमुख चल,
आये होंगे सुग्रीव के संग
खुशियों से मलकर वदन-मण्डल ॥
जो समझते लोष्ट-खण्ड-सा सानुमान्,
वही महावीर हनुमान्
अमित-बलवान्
विहरते होंगे वहीं सिंह-समान,
सानन्द सजाकर हृदय पर मुक्ताहार
सीता-प्रदत्त उपहार ॥
नाना-विहंग-लोममालाओं से सुन्दर
अलंकृत कर अपना अपना अंग,
आये होंगे अनेक शबर
निषादराज गुहक के संग ॥
जिन्होंने भ्रातृभक्ति-बल द्वारा
अनायास ठुकरा दिया आलिंगन प्यारा
दुर्लभ राजलक्ष्मी का,
स्थापित कर अग्रज की पादुका
राजसिंहासन पर
फलमूलाहार से बिताये चौदह वत्सर,
ऊँचा किया जीवन
जटाजूट बाँधकर,
जिसे निहारता ऊर्ध्व-वदन
हिमगिरि का तुंग शिखर,
होंगे वही भरत
वहीं श्रीराम के अनुगत,
आकाश में राकेश के समान
कीर्त्ति-कान्तिमान् ॥
क्षणजन्मा लक्ष्मण को देखोगे वहीं
संसार में जिनके सदृश दूसरा कोई नहीं ।
स्वयं वज्र-हस्त
जिसके भय से थे त्रस्त,
उस मेघनाद का घमण्ड सकल
उन्होंने पैरों से दिया है कुचल ॥
मेघनाद-निधन की खबर
कालाग्नि बन
धधक उठी प्रखर
समाकर रावण के हृदय में गहन ।
संग-संग अंग-बल की आहुति डाल
असुरेश्वर ने बना दिया उसे उग्रतर कराल ।
तपाकर उसमें प्रदीप्त शक्ति क्रोधभर
निक्षेप किया वीर लक्ष्मण पर ॥
शक्तिघात-जनित क्षतों का लक्षण
अपने उर पृष्ठ पर
धारण करके वे वीरवर
यथार्थ-नामा हैं ‘लक्ष्मण’ ॥
अक्षियों से देखोगे सामने
जो अक्षरों से देखा है तुमने ।
करोगे सबकी कथा गान
सबके सम्मुख विद्यमान ॥
श्रवण करेंगे वहाँ संगीत सुस्वर
शत-शत नरेश्वर,
साथ तपस्तेज से दीप्त-कलेवर
शत-शत यतिवर ॥
परिचय यदि कोई पूछेंगे उधर
तुम बोलोगे अवश्य :
‘हम युगल सहोदर
महर्षि वाल्मीकि के शिष्य ॥’
बुलायेंगे यदि रघुनन्दन
उनके समक्ष करोगे रामायन गायन ।
वे कौतूहलपूर्ण -हृदय
पूछेंगे यदि तुम्हारा परिचय
तुम दोनों दोगे उत्तर :
‘वाल्मीकि-शिष्य हम युगल सहोदर ॥’
यदि राजा रघुनन्दन
प्रदान करेंगे धन,
लोभ त्याग कर तुम उभय
बोलोगे सविनय :
‘हम क्या करेंगे नरेश्वर !
तापस-कुटीर में धन लेकर ?’
वाल्मीकि-मुख से करके श्रवण
वार्त्ता अश्वमेध-यज्ञ-विधि की,
वैदेही के हृदय में उसी क्षण
जाग उठी व्यथा आकस्मिकी ॥
सीता लगीं सोचने :
‘निश्चित ही रघुकुल-चन्द्र ने
बिठायी गोद में अपनी
लाकर द्वितीया पत्नी ॥
धन्य वही सीमन्तिनी
सौभाग्य-शालिनी,
जिनके तपोवृक्ष में फल बने आकर
सगर-कुल-सागर के कलाकर ॥
कहाँ किसप्रकार कौन-सी
घोर तपस्या की उन्होंने ?
अन्तःकरण मेरा अत्यन्त लालसी
उस तपश्चरण में प्रवृत्त होने ॥
कौन करेगा मुझे सूचित
उस तपश्चर्या का नियमादिक ?
करूंगी तपश्चरण निश्चित
उसीसे भी कठोर अधिक ॥
किसको पता उनकी पूर्व तपस्या का रहस्य ?
वसिष्ठ आदि महर्षिवृन्द जानते होंगे अवश्य ।
अन्यथा उन्हें महारानी चुनी कैसे ?
प्रभु ने किया होगा परिणय उनके मत से ।
तब किसी भी उपाय का प्रयोग कर
लाऊंगी निश्चय वही गुप्त मन्तर ॥’
मन में करके ऐसी भावना
सती ने आरम्भ किया विनय-पत्र लिखना :
‘शरण-वत्सल -केतन,
बैरी-वारणांकुश भीषण,
दुःख-पर्वत-पवि दर्शन
करते जिनमें ज्ञानीगण,
राजराजेश्वर के उन पावन
चरणारविन्द में करती वन्दन
यह दीन भिक्षुका
दूर से अपना शीश झुका ॥
मधु-आशा का अन्धकार
भेदन करने किसी प्रकार
कान्तार में रहकर कातर-मन
प्रेषित करती यह निवेदन ॥
हयमेध महायज्ञ में महाराज
आप स्वयं दीक्षित हो चुके ।
दर्शन दे रही होंगी आज
नवीना वामा वामांक में प्रभु के ॥
मुग्ध होंगी मुग्धा वल्लभी,
यही विचार करके
शत-गुणित बढ़ते होंगे अभी
सद्गुण आपके ॥
महाक्रतु में प्रदान करेंगे आप अनन्त धन
रत्न-राशि क्षौम वसन ।
पूर्ण होगी वहीं याचक-जनों की कामना ।
जागी है मेरे मन में एक याचना ॥
प्रदान करने यही भिक्षा नगण्य
कृपया आपका न होगा कार्पण्य ।
आप तो स्वयं हैं अपार
दया-रत्नमय दान-पारावार ॥
मैं कौन, जानने की नहीं आवश्यकता,
आप सदा तापसों के अशान्ति-हर्त्ता ।
रहता नहीं तापसों के प्रति
आपका अदेय कुछ ।
मैं तपस्विनी सम्प्रति,
आप न समझेंगे मुझे तुच्छ ॥
आपकी अंक-योग्या सुभगा
जो बनी हैं आज,
सभक्तिक दर्शन कर रहा होगा
जिन्हें जगत का जन-समाज,
कौन-सी घोर तपश्चर्या
पहले कभी उन्होंने की ?
कितने काल तक किधर
किस मन्त्र का जप कर ?
केवल इतनी ही सुदया
करेंगे प्रभु मुझे बताने की ।
अन्य कोई भी धन
नहीं आवश्यक मेरे लिये, हे राजन् ! ॥
कोटि अश्वमेध अध्वरों में दान
की जाती जितनी सम्पदा,
उसीसे भी समझूंगी अधिक महान्
मेरे विचार में उसे सदा ॥
और एक बात का है निवेदन,
अति अबोध हैं इस दुःखिनी के युगल नन्दन ।
पिता के अंक में उपवेशन का
सौभाग्य नहीं उनका ।
जन्म से ही ये कुमार
जानते नहीं पिता का प्यार ॥
जानते हैं रुलाने जननी का जीवन
वीणा-तन्त्री संग करके रामायण गायन ।
कौन रोएगा नहीं फिर
करके मानव-हृदय धारण ?
जिसे सुन हो जाते अस्थिर
वल्लरी-पादप-गण ॥
आपके चरित से स्वयं मोहित होकर
जा रहे हैं महर्षि के साथ दोनों सहोदर ।
दर्शन करने आपके पाद-पद्म पावन
खींच ले रहा उन्हींका मन ॥
आपके अतीत दुःखों की कथा
सुनाएंगे दोनों भ्राता,
जिसे श्रवण कर सर्वथा
हृदय इस दुःखिनी का विदीर्ण हो जाता ॥
श्रवण न करने से उसकी ओर
मन सदा दौड़ता रहता ।
दमित नहीं की जा सकती जोर
उसकी उत्सुकता ॥
हे धीर-धुरन्धर !
उसी कथा को लेकर
यदि आपका श्रवण
दिलाएगा दीना वैदेही का स्मरण,
स्वप्न ही समझ लेंगे आप उसी का प्यार
नयी प्रणयिनी का प्रफुल्ल वदन निहार ॥’
लिख रही थीं पत्र इसी तरह
विकल-हृदया सती ले अपनी गाथा ।
नेत्रनीर-झर से वह
धौत हो रहा था ॥
और लिखूंगी क्या ?
सोच रही थीं बैठ रामप्रिया ।
सहर्ष हँसते-हँसते वहाँ
पहुँच गये कुश लव ;
बोले : ‘ माँ माँ !
धन्य धन्य वे राघव,
धन्या उनकी प्रणयिनी
सती सौभाग्य-शालिनी ॥
श्रीरामचन्द्र कौशल्या-पुत्र
प्रारम्भ कर रहे हयमेध अध्वर ।
साथ ले निमन्त्रण पत्र
एक दूत आया है इधर ॥
दूत से पूछकर जाना हमने इसप्रकार,
रामचन्द्र के कारण आज धन्य यह संसार ।
लोकापवाद उन्होंने मिटा दिया
त्यागकर सीता, अपनी प्राणप्रिया ॥
हयमेध यज्ञ में समीप अपने
रघुकुल-प्रदीप ने
सहधर्मिणी के स्थान है स्थापित की
कनक-मूर्त्ति जानकी ॥
जननी ! दुर्लभ थी क्या
उनके लिये कोई प्रिया ?
कामना उन्होंने नहीं की
द्वितीया पत्नी की ॥
कहाँ गयीं माँ ! सती जनक-तनया ?
जीवित न होंगी क्या ?
इस विषय का ज्ञान हमें
प्राप्त हो न सका रामायण में ॥
माँ ! चलेंगे दोनों भ्राता हम
श्रीराम के कमल-चरण दर्शन करेंगे ।
कह रहे हैं मुनिसत्तम,
हमें संग ले चलेंगे ॥’
पुत्र-युगल के रसान्वित
वचनामृत-सिन्धु की ऊर्मियों ने उछल
कर दिया मज्जित
सीता के जीवन को उस पल ।
था सती का हृदय
जैसे तप्त-सिकतामय ।
प्लावित हो गया उधर
बरसा जब राम-प्रेम का जलधर ॥
मन-ही-मन कहने लगीं सती,
‘हाय ! मैं चिर-पापाचारिणी,
लिख रही थी भारती
प्रभु-हृदय की सन्ताप-कारिणी ॥
मैं तो अबला दुर्बल-हृदया अत्यन्त,
मेरे प्रभु का अनुग्रह अथाह अनन्त ।
प्रभो ! क्षमा-पारावार अगाध !
क्षमा कीजिये मेरा अपराध ।
विधि ने मुझे बना दिया इस पल
आपके हृदय का गरल ॥’
पत्र छुपा तदनन्तर
बोलीं जानकी हर्ष व्यक्त कर :
‘ जाओ प्यारे युगल नन्दन !
करने महाराज के पद-सरोज दर्शन ॥
कह रहे थे तात
वहीं तुम दोनों भ्रात
करोगे संगीत गान ।
स्वभाव से वह तो सुधा-समान ॥
पुण्यमय यज्ञ-क्षेत्र में
वह अमृत-प्रवाह बन
प्रत्येक हृदय-परिसर में
व्याप्त हो जाएगा सघन ॥
तुम्हें बुलाएंगे यदि रघुवंश-प्रदीप,
जाओगे उनके समीप
तुम युगल भ्रात,
करोगे चरणों में सभक्तिक प्रणिपात ॥
उधर देखोगे उनके अनुज-त्रय,
चरणों में उनके प्रणाम करोगे सविनय ।
तुम युगल सहोदर
राजमाताओं के पद-सरोज-रज पावन,
लगाकर मस्तक पर
सफल करोगे अपना जीवन ॥
उन तीनों के समीप आसीन
होंगी सीता की भगिनियाँ तीन ।
चरणों में उनके तुम युगल सहोदर
सीता-सी उन्हें मान प्रणाम करोगे सादर ॥
‘तुम दोनों किसके तनय ?’
यदि पूछेंगे कोई परिचय,
वहाँ दोगे उत्तर :
‘तपस्विनी-धन हम युगल सहोदर ॥’
इसप्रकार वचन से जननी के,
आनन्दित हो उठे नन्दन युगल ।
भर गया मन में उन्हींके
नवल कौतुहल ॥
न रहा भोजन शयन में आदर ;
उनके हृदय के भीतर
नृत्य करने लगी सर्वथा
श्रीराम की गौरव-गाथा ।
कथालाप कर राम-प्रसंग परस्पर
आ गये निद्रा की गोद में दोनों सहोदर ॥
जानकी का जीवन बहता रहा
पतिभक्ति-सरिता-धारा में प्रखर ।
आवर्त्त में भ्रमता रहा
वहाँ अस्थिर होकर ॥
उसे गोद में बिठाने
हुआ नहीं निद्रा का बल ।
इसलिये बताया उसने
योगमाया के समीप चल ॥
कहा : ‘देवीजी ! आज जीवन रामवधू का
मानवी हृदय-सीमा अतिक्रम कर चुका ।
बारह वर्षों तक
बरसाकर लोतक
भिगाकर अपनी शय्या
सीता जनक-तनया
धीरे से आती थी किसी भी प्रकार
मेरे अंक में एक बार ॥
मधुर वाणी में आज बारबार
कितना दे रही हूँ पुकार ।
परन्तु सती कुछ न श्रवण कर
स्वर्ग-राज्य की ओर है अग्रसर ॥
इस पल नेत्र-प्रतिमा पुत्र-युगल
हो जायेंगे उसकी आँखों से ओझल ।
उसके लिये दशों दिशायें सारी
हो जायेंगी अन्धकारभरी ।
सुख-सूर्योदय नहीं
उसके इस जीवन में कहीं ॥
पतिव्रता बनी मैथिली,
परन्तु उसे क्या सुफलता मिली ?
दुःखिनी देख सके अवश्य,
समुज्ज्वल कर दो उसका भविष्य ॥
प्राण-आलबाल में नयनों का पानी डाल
पाया अबला ने पतिभक्ति का उद्यान विशाल ।
वहीं न फूल खिला,
न कोई फल मिला ।
कहो तो उसका जीवन अपना
होगा घोर व्याकुल कितना ?’
योगमाया बोलीं : ‘चलो री सहचरी !
ढलने जा रही शीतल विभावरी ।
सीता के समीप जाकर
हम दोनों अभी सत्वर
उसका भविष्य-रहस्य
प्रकट कर देंगी अवश्य ॥’
तुरन्त निद्रा के संग योगमाया आयीं,
सीता की पर्णकुटी के अन्दर समायीं ।
दिव्य ज्योति से वनस्थल
उठा जगमगा ।
दिव्य सौरभ से महीतल
महकने लगा ॥
पाकर वही सौरभ मन्द-मन्द
जानकी के जीवन में भर गया पुलक ।
ज्योति-प्रभाव से हो गयी बन्द
उनके नयनों की पलक ॥
आया दृश्य यही,
ज्योतिर्मयी विराजी हैं जानकी ।
धरती है जगमगा रही
ज्योति से उनकी ॥
स्वयं मैथिली को साथ लेकर
रत्न-सिंहासन पर
विराजमान हैं प्रसन्न-वदन
ज्योतिर्मय श्रीरघुनन्दन ।
कुश बैठे हैं गोद में पिता की
और लव गोद में सीता की ।
समीप करके छत्र धारण
विद्यमान लक्ष्मण ऊर्मिला-रमण ॥
चन्द्रकिरण-सा शुभ्र सुन्दर चामर
चला रहे भरत स्वधर्म पालन कर ।
मयूर-चन्द्रिका-विरचित व्यजन
ले अपने हाथ झल रहे शत्रुघन ॥
भविष्य-मुख में सबकी जीवन-ज्योति प्रखर
बह रही सरिता का स्रोत बनकर ।
कोटि-कोटि नर नारी सभी मान
पुण्य तीर्थ महान्,
कर रहे हैं उस पावन
प्रवाह में अवगाहन ॥
सुदूर काल-समुद्र की ओर
चल रही जोर,
प्रतिक्षण अपना आकार
बढ़ाकर वही धार ॥
ऊपर से सभी अमर विद्याधर
बरसा रहे सुमन मनोहर ।
अमरों के संग दानव
नाग, अप्सरा, मानव
सबके ‘जय सीताराम’
उच्चार से व्याप्त हो गया धराधाम ॥
घर-घर में, प्राण-प्राण में, नगर-नगर में,
सरिता-नाव में, सागर-पोत में, कन्दर-कन्दर में,
दिन में, रात में,
प्रदोष में, प्रभात में,
सुख में, दुःख में,
धनी निर्धन सभीके हृदय में
‘जय सीताराम’
ध्वनि गूँज उठी है अविराम ।
मुग्ध हो गयीं निहार यही
सती-रमणी-कुल-शिरोमणि वैदेही ॥
* * * *
(तपस्विनी का एकादश सर्ग समाप्त)
= = = = = =
* स्वभावकवि-गंगाधर मेहेर-प्रणीत
ओड़िआ महाकाव्य ‘’तपस्विनी” का
डॉ. हरेकृष्ण मेहेर-कृत हिन्दी अनुवाद
सम्पूर्ण *
॥ श्रीः ॥
* * * * *
[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *
‘तपस्विनी’ काव्य अष्टम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Kavya Canto-8)
TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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Tapasvini [Canto-8]
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[Canto-8 has been taken from pages 147-162 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
*
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya '
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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अष्टम सर्ग
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यौवन जैसे बढ़ता जीवन में,
वसन्त वैसे बढ़कर ग्रीष्म बन गया वन में ।
युवा-बल जैसे होता प्रखर,
आतप वैसे हो चला प्रचण्डतर ।
किया उसने सुन्दरी मृगतृष्णा का सञ्चार,
सुख-विषय भोग तृष्णा जिस प्रकार ॥
त्याग शाल्मली-तरु-निवास
उड़ चला कार्पास,
कृपण का धन समयानुसार
उड़ता जैसे छोड़ गुप्त भण्डार ॥
पलाश-अंग में रहा नहीं पहले का रंग,
वैसे है क्षण-भंगुर संसार-प्रसंग ।
ताप से हुआ बहुतर
मल्ली का विकास,
फैलने लगा उधर
उसके अंग से अधिक सुवास ।
ताप से अटल रहता साधु-हृदय,
फैलता उसीसे शान्ति-यश अतिशय ॥
देखा मल्ली की ओर कुटज ने हर्षित-अन्तर,
साधु अवश्य रमता साधु-संग पाकर ।
विचार किया दोनों ने एक हृदय में :
‘महका करेंगे हम ग्रीष्म-समय में ।
वर्षा जब प्रदान करेगी जल
वसुन्धरा हो जायेगी शीतल ।
शान्ति लाभ करेंगे तभी
जीवजन्तु सभी ॥
कृपण नहीं कदम्ब और केतकी
करने सौरभ प्रदान,
करेंगे वे जगत की
तृप्ति का विधान ।
उन्हें सौंप लोक-रञ्जन का भार श्रम
तरु-दुनिया छोड़ चलेंगे हँसते-हँसते हम ॥’
उद्दण्ड पद्मिनी ने शीश उठा सानन्द-मन
कहा उन बातों का करके समर्थन :
‘तुम्हारे संग मैं रहूँगी,
काल-सागर की उत्तुंग तरंगों में कूद पड़ूँगी ॥’
मल्ली बोली : ‘अरी हाँ !
तू ऐसा कर सकेगी कहाँ ?
छोड़ेंगे नहीं तुझे पाकर
तेरे प्रियतम दिवाकर ॥’
बोली पद्मिनी : ‘ छाएगी जब घटा घनघोर
प्रियतम निहारेंगे नहीं मेरी ओर ।
विपत्ति में बिताकर कुछ दिवस
संसार-व्रत उद्यापन करूँगी बस ॥
मेरे प्रियतम
मेघ-पटल भेदने अक्षम ।
दुःख झेलते हैं ये
लोक-कल्याण के लिये ॥
प्रियतम का प्यार अनुराग भोग
कहाँ कर पाऊँगी अधिक दिन तक ?
नहीं मेरा सौभाग्य योग ।
करती रहूँगी अनुक्षण
उनके चरणों का स्मरण,
मुझे वरण कर ले जाएगा अन्तक ॥
इस जनम में कुछ दिन दुःख सहूँगी
तो अवश्य कर पाऊँगी
अगले जनम में दर्शन
प्रियतम का प्यारा वदन ॥’
यह वचन जब सीता के ज्ञान-श्रवण में पहुँचा,
मान उसे जीवन का आदर्श ऊँचा
बोलीं सती :
‘पद्मिनि ! तू साधवी है री !
तुझे अवश्य दीखती
सरणी पुण्यभरी ।
मेरे विचार में मैं तेरी भगिनी हूँ,
उसके ऊपर फिर भाग्य-भागिनी हूँ ॥
तेरी तरह पाया वन में पति का प्रणय,
भवन में सुख निर्मल अमृतमय ।
दिवस-नाथ सूरज हैं
तेरे प्रियतम स्वयम् ।
उनके वंशज हैं
पृथिवीनाथ मेरे प्रियतम ॥
कहती जो अपने भविष्य की अवस्था,
पहले से ही मुझे प्राप्त है वही पन्था ।
धन्य तेरा हृदय महान्,
तू सति ! धन्य धन्य है री !
कर ले प्रदान
मेरे जीवन में शुद्ध-मति तेरी ॥
लोकापवाद से दुःखित-मन
मेरे प्रियतम ने
मुझे त्याग दिया ।
बोल दिव्य-दर्शने !
पर-काल में स्वामी के दर्शन
भाग्य मेरा कर पाएगा क्या ?’
शीतल कमल-पंखुरियों के नीचे बस
घन-श्यामल-हृदय सरसी-जल में सरस
मध्याह्न चक्रवाक-दम्पति ने बिताया
और राजहंस ने संग ले अपनी जाया ॥
कारण्डव-कवल से बचकर झींगा
अम्बुज-वन में लम्बी छलांग लगा
छत्र-विशाल पत्र-वन में रास्ता भूल अपना
अन्त में बगुले का आहार बना ॥
उद्दण्ड अरविन्द-पंखुरियों के अन्दर
गिरी शफरी नीर में लम्फ दे रही ।
कुमुदिनी के बंकिम नाल पर
बैठने से पूर्व ही
फुदक रहा मण्डुक
डुण्डुभ के भय से दुकदुक ॥
आम्र-शाखा पर सविषाद बैठ कोयल
काक-नीड़ के पास
पत्रों में छुप विह्वल,
झेल सारी प्यास
पञ्चम स्वर में वहीं
श्रवणामृत बरसाती थी नहीं ।
छुप गयी थी जैसे
चाण्डाल के भय से ॥
अपनी पूँछ पसार
बुलबुल किसी प्रकार
पूँछ-छोर में रंगीन पर
नहीं नचा रही उधर ॥
पंख हिलाकर
देख अपना सोदर
वह थी क्रुद्ध नहीं होती,
पुकारती नहीं दे चुनौती ।
आहार ही उसे लड़वाता,
अन्यथा भ्राता किसका शत्रु बन जाता ?
पीन-अपघन
परिपूर्ण-उदर
बैठी थी वह प्रसन्न-मन
विशाल शाल-पादप-डाल पर ॥
बैठकर मधुक-जंगल में
मधुक फल काट भोजन-छल में
द्विज-स्वभाव से शुकगण
सूक्ष्म-पञ्जिकानुसार उसी समय
भावी वृष्टि-लक्षण
कर रहे थे निर्णय ॥
तमसा-तट पर वटवृक्ष-तल
गहन पत्र-छाया से था सुशीतल,
जहाँ कुटज-सुरभित कुटीर में अनायास
ग्रीष्म लेता शान्ति-चरणों में आश्वास ॥
वहाँ समासीन वाल्मीकि मुनिवर
खोल अपने ज्ञान-लोचन
दर्शन कर रहे पावन रामायण ।
कहीं कहीं तापसगण
रहे अध्ययन-तत्पर,
कहीं कोई वेद-गान में मगन ॥
गुरु गर्भ-भार से आलसी-काया
तापसी-समुदाय-परिवृत श्रीराम-जाया
घने कुञ्ज-वन में
बैठ पत्रासन
स्थिर नयन में
करतीं शान्ति सेवन ।
जैसे परिधि-मण्डित चन्द्र-मण्डली
पूर्णिमा की बिदाई पर अस्ताचल को चली ।
सती के पाण्डुर कपोल-परिसर के घर्म-पटल
शिशिर सदृश, हिम नेत्र-जल ॥
तापसियों के बीच रहकर श्रीराम-पत्नी
लंका-राक्षसी वृत्ति लाकर स्मृति में अपनी
कर रहीं भावना :
‘भाव तापसियों का कितना स्वर्गीय,
फिर राक्षसियों का भाव नारकीय
कुत्सित कितना ॥’
पवन-देव की दी बधाई,
जब मानस में आई
वीर पवन-कुमार की याद ।
सादर तालवृन्त व्यजन झल
देवी ने पाया सुशीतल
ऊर्मि का प्रसाद ॥
उसी समय समक्ष आ चिन्ता-सुन्दरी
बोली वाणी विनयभरी :
‘देवीजी ! कुछ लोग द्वार पधारे
प्यासे हैं दर्शन पाने तुम्हारे ।
यात्रा कर चुके राह बहुत लम्बी ।
धन्य वह दर्शन-कामना
प्रखर आतप से नहीं दबी ।
बन जाता हृदय अपना
अपार प्रीति का भण्डार
उनके कमनीय रूप निहार ॥’
बोलीं देवी : ‘सखी मेरी !
ले आओ उन्हें न कर देरी ।
भाग्य मेरा धन्य,
मुझ पर इतने आदर हैं अनन्य ।
अवश्य पाप-ताप मिटा देंगे मेरे नयन
पाकर उनके दर्शन ॥’
देवी की आज्ञा मान
पहले आकर
एक् ने मधुर मुस्कान
धीरे बिखराकर,
कई दिनों से परिचित बन्धु समान
कहा प्यारी बातों में अमृत सान ॥
‘देवीजी ! स्मृति में है क्या घटना पिछली ?
किया था पदार्पण
तुमने मेरे घर ।
पाई है मेरी काया ने उसी क्षण
तुम्हारी तनु-ज्योति से सुन्दर
यह स्वर्गीय प्रभा की सम्पदा उजली ॥
मेरे निर्झर उस प्रभा के व्याज
आनन्द-विभोर झर्झर बहते आज ।
प्रफुल्ल-वदन पुष्प-समुदाय हास्य निखार
नन्दन-कानन का करते तिरस्कार ॥
सरिता-सलिल महकाकर सदा सुगन्ध मन्द
तटवासियों के मन में जगाता आनन्द ।
तुम्हारे प्यार-पले मयूर सारे
उच्च स्वर नित्य गाते गुण तुम्हारे ॥
प्रतिक्षण वारिद आकर बारी-बारी से
अटल अभिलाषा रख तुम्हारे दर्शन की,
ढूँढते घूम-घूम दरी-दरी से
‘कहाँ है सुन्दरी जानकी ।’
पूछते मुझसे गंभीर स्वर में सभी,
‘नहीं है’ उत्तर से मानते नहीं कभी ।
ले उजाला बिजली का खोजते पुनर्वार
‘निश्चित है सीता सुन्दरी’ यही विचार ॥
देवीजी ! आज पहचाना क्या
इस हतभाग्य को तुमने ?
बहुत दिनों बाद आया
तुम्हारे सामने ।
तुम्हारी चरण-धूलि से सुन्दर
अपना मुकुट सजाकर
बन चुका हूँ भाग्यवान्
मैं चित्रकूट सानुमान् ॥’
तदुपरान्त पधारी एक शुभांगी रंगीली नयी
विमल-समुज्ज्वल-कान्तिमयी,
प्रखर-आतप-ताप-दर्पहारिणी,
वन-सुन्दरी की चिर-सहचारिणी ।
गिरिमल्लिका-माला से कण्ठ है सज्जित हुआ,
ललाट पर रमणीय शिरोमणि महुआ ।
जम्बु-नीलरत्न कर्णाभरण,
शुक्ति-पङ्क्ति जिसका कटि-भूषण ।
वनवासी मुनिजनों का अन्तःकरण मोहती,
सुन्दर कुटिल नील वेणी से सुहावनी लगती ॥
प्रफुल्ल प्रसन्न-वदन
उसने व्यक्त किया प्रत्यक्ष,
सुकुमार धीर मधुर वचन
सती के समक्ष :
‘अयि सुशीले !
कृतज्ञता मेरी स्वीकार ले सादर,
तेरे स्नेह-ऋण से ऋणी हूँ निरन्तर ।
ऋण कहाँ चुका पाऊंगी ? नहीं मेरी शक्ति,
मुझे कृतार्थ कर, सति !
आन्तरिक भक्ति मेरी ले ॥
दुनिया में मेरे जैसे हैं नहीं कितने ?
इतनी कृपा तेरी पाई है कहाँ किसने ?
पाकर तेरी शुभ दृष्टि पावनी,
मेरी बालुका है स्वर्ण-रेणु बनी ।
क्रीड़ा से रम गये जब दिव्य नयन तेरे
तूने हीरा-क्षेत्र बना दिया वक्षस्थल को मेरे । [१]
विद्यमान नगेन्द्र-नन्दिनी श्रीविष्णुपदी,
फिर भी तेरी प्रदत्त उपाधि से मैं हूँ ‘महानदी’ ॥’
आई निर्मल-कलेवरा गोदावरी
वदन में विषाद की छाया है भरी ।
अश्रु बहाकर व्याकुल-मन
पोँछ-पोँछ आँचल से सरोज-नयन,
समुज्ज्वल रंगों से रञ्जित कई
विचित्र चित्र अपने संग थी लाई ।
सती की अनुज्ञा लेकर शीघ्र ही
खोल स्तर-स्तर दिखाने लगी वही ॥
कहीं पुष्प-पुञ्ज झड़कर लतागण से
सड़ रहे मार्त्तण्ड की प्रचण्ड किरण से ।
शुष्क पत्र-शय्या पर पतित
कई वृक्ष हैं मलिन-वेश प्रभा-रहित ॥
एक टूटी शाखा किसकी
उस तरु का अंग छोड़ न सकी ।
तृणराशि की शरण चाहती चूम किसीका सिर,
किसीके पैर पकड़ फिर ॥
खग-पुरीषों से पूरित पत्र
शुक्ल कर रहे किसीका तन ।
ले ऊर्णनाभ-जाल रूप मलिन वस्त्र
आनन्द खो चुका कोई ढँक अपना आनन ॥
बक-विक्रम देख कई भेक बारबार
छलांग लगा झेल रहे क्लेश अपार ।
कुछ तो पाषाण-तल में छुपकर
चुपचाप बैठ भर रहे उदर ॥
कहीं वन्य महिष-दल अधीर
पंकिल कर रहे सरोवर का नीर ।
क्षिप्त हो रहे कर्दम से सने कुछ कमल
महिषों के पैरों से चञ्चल ॥
कहीं अजगर ले आहार-लालसा
नीर के पास पड़ा है काष्ठ-सा ।
उसके समीप मृगों का मार्ग निहार अनुकूल,
छुप-छुप अधर-प्रान्त लेहन करता शार्दूल ॥
फिर दृश्य हुआ प्रबल दावानल
धूमान्धकार से घिर वनस्थल ।
असंख्य-शाखावाली प्रचण्ड
अग्नि-शिखाएँ लिपटती
और खण्ड-खण्ड
गगन में जा रहीं मिलती ॥
ज्वलित पत्र सब अम्बर में उठकर
धूम-वाहन में चल रहे ।
दूर वृक्षों पर बैठ सुनाकर खबर
अतिशय ताप से जल रहे ॥
कुछ मुरझाये पत्र ऊर्ध्व मार्ग चल
अम्बर में हो रहे ओझल ।
पलायन-रत हैं विहंगम गगन में उड्डीन,
कुछ तो अग्नि-गर्भ में हो रहे विलीन ॥
मृग, महिष, मातंग,
शशक, शूकर,
भल्लुकों के संग
दल-दल शृगाल,
धूम-पुञ्ज से ग्रस्त होकर
अग्नि की ओर दृष्टि डाल
कान्दिशीक हैं समस्त
अत्यन्त विकल त्रस्त ॥
उधर अनेक वानर
भीत चकित-मन
छलांग लगा वृक्षों पर
कर रहे पलायन ॥
कुछ अपने शावकों को पीठ में रखकर,
कुछ अपने कक्ष में पकड़ जोर
दौड़ रहे धूम के भीतर
सरिता की ओर ।
सरिता के सैकत स्रोत से पुलिन पर्यन्त
भर गये हैं जन्तुकुल व्याकुल अत्यन्त ॥
बोली गोदावरी :
‘देखी तूने, वत्से जानकी !
तेरी बिदाई के बाद दशा दुःखभरी,
दण्डका-वन की ?’
बोलीं पर-दुःख-कातर सती :
‘हा हा ! दण्डका !
मेरे केलि-निधान !
लेकर जल मेरे नयन-युगल का
दैव तुरन्त करे तेरी शान्ति विधान,
तो मैं अपने को धन्य समझती ॥’
तदुपरान्त आ
मिलकर अयोध्या
सती के सामने
शोक-गद्गद दुःख-विकृत स्वन में,
कम्पित-अधर लज्जा-विनत वचन में
लगी राजलक्ष्मी का पत्र पाठ करने ॥
‘सखि ! मैं रजनी,
तू थी चाँदनी ।
मेरे प्रफुल्ल नयन-कुमुद मूँद
बिदाई तूने ले ली ।
तेरे बिना, अरी प्यारी !
और नहीं मेरे सुख की एक भी बूँद ।
बन गई है तेरी यह सहेली
जैसे आभरण-शून्या नारी ॥
आज राजभवन
बन गया है वन ।
तेरा विरह-दावानल उधर
सब नष्ट कर चुका समाकर भीतर ।
फिर बची है क्या
पूर्व सौन्दर्य-विलास-चर्या ?
जल चुके उल्लास-पल्लव-बहुल
विशाल साधु-हृदय-पादप-कुल ।
सुहास-सुरभित प्रसून समस्त
ओह ! अनायास वहाँ हो चुके विध्वस्त ॥
शान्ति-हरिणी-दल
साथ धीरज-गज सकल
विषाद-धूम से व्याकुल-जीवन
जाकर उदर में तितिक्षा-सरिता के
अपना अपना तन
आकण्ठ डुबा चुके ॥
खल-हृदय बलवान् श्वापद वहीं,
उस विपत्ति ने उन्हें भी छोड़ा नहीं ।
केवल श्रीरघुवर के
हृदय-सागर के
अथाह गर्भ में गहन,
वह बन गया है बड़वा-दहन ॥
जैसे राहु-कवलित कलेवर कलाकर का,
तेरे बिना बाकी है केवल आकार नरेश्वर का ।
मणिमय भवन में
छा गया है अन्धकार,
तारा-पूरित गगन में
अम्बुद जिस प्रकार ॥
बैठी हैं श्वश्रूगण विदीर्ण-हृदया
जैसे पुष्करिणी शुष्क-तोया ।
मणि जैसे सर्पिणी की प्राण-सम्पत्ति,
उससे अधिक तुझे वे मानतीं सम्प्रति ॥
बन्द हो चुके
द्वार प्रमद-वन के ।
किसकी दृष्टि में फिर आयेगी सुमन ?
पतित पुष्प-राशि को उधर
सुखा रहे मुस्तक समस्त उठकर
गन्ध-वणिक् बन ॥
शुष्क हो रहे लता-वृक्ष-निकर
तेरी स्मृति में दुःख-विह्वल मन ।
संगमर्मर-निर्मित मनोरम मार्ग पर
शुष्क पत्रों ने बनाये हैं आसन ॥
प्रभु की बात मान सभी देवर
विनत-शीश हैं विषादित-अन्तर ।
उरग जैसे मन्त्र से हीन-बल
या निशित अंकुश से शंकित दन्तावल ॥
भगिनियों के कपोल-परिसर
निर्भर कर रहे कर-सरोज पर ।
दिनों दिन तन उनके हो रहे कृश
कृष्णपक्ष के ऋक्षपति सदृश ॥
मृदंग-मुख छुए बिना संगीत-संगिनियाँ
बैठी हैं अपने आप गूंगी वहाँ ।
जी रही हैं व्यथा ले गहरी
बासी सुमन-सी दासियाँ तेरी ॥’
पत्र-पाठ -समाप्ति के पूर्व ही अयोध्या
बैठ गयी मलिन-रूपसी अधैर्या ।
दशा उसकी देखते ही
करुणामयी वैदेही
विवश हो गयीं अपने आप
पाकर अत्यन्त क्षोभ सन्ताप ॥
आ गया दिवस का अवसान अभी,
अपने निवास लौट चले अतिथि सभी ।
तापसियाँ सती को सप्रेम संग लेकर
हो गयीं अपने अपने कार्यों में तत्पर ॥
* * * * *
[पादटीका :
(१) सम्बलपुर के पास महानदी-गर्भ में ‘हीराकुद’ नाम का एक क्षुद्र द्वीप है । यहाँ हीरा मिलने की जनश्रुति है ।
= = = =
(तपस्विनी काव्य का अष्टम सर्ग समाप्त)
= = = = = = =
[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *
Translated Works of Dr. Harekrishna Meher :
http://hkmeher.blogspot.in/2016/08/translated-works-of-dr-harekrishna-meher.html
= = = = =
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
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Tapasvini [Canto-8]
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[Canto-8 has been taken from pages 147-162 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
*
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya '
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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अष्टम सर्ग
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यौवन जैसे बढ़ता जीवन में,
वसन्त वैसे बढ़कर ग्रीष्म बन गया वन में ।
युवा-बल जैसे होता प्रखर,
आतप वैसे हो चला प्रचण्डतर ।
किया उसने सुन्दरी मृगतृष्णा का सञ्चार,
सुख-विषय भोग तृष्णा जिस प्रकार ॥
त्याग शाल्मली-तरु-निवास
उड़ चला कार्पास,
कृपण का धन समयानुसार
उड़ता जैसे छोड़ गुप्त भण्डार ॥
पलाश-अंग में रहा नहीं पहले का रंग,
वैसे है क्षण-भंगुर संसार-प्रसंग ।
ताप से हुआ बहुतर
मल्ली का विकास,
फैलने लगा उधर
उसके अंग से अधिक सुवास ।
ताप से अटल रहता साधु-हृदय,
फैलता उसीसे शान्ति-यश अतिशय ॥
देखा मल्ली की ओर कुटज ने हर्षित-अन्तर,
साधु अवश्य रमता साधु-संग पाकर ।
विचार किया दोनों ने एक हृदय में :
‘महका करेंगे हम ग्रीष्म-समय में ।
वर्षा जब प्रदान करेगी जल
वसुन्धरा हो जायेगी शीतल ।
शान्ति लाभ करेंगे तभी
जीवजन्तु सभी ॥
कृपण नहीं कदम्ब और केतकी
करने सौरभ प्रदान,
करेंगे वे जगत की
तृप्ति का विधान ।
उन्हें सौंप लोक-रञ्जन का भार श्रम
तरु-दुनिया छोड़ चलेंगे हँसते-हँसते हम ॥’
उद्दण्ड पद्मिनी ने शीश उठा सानन्द-मन
कहा उन बातों का करके समर्थन :
‘तुम्हारे संग मैं रहूँगी,
काल-सागर की उत्तुंग तरंगों में कूद पड़ूँगी ॥’
मल्ली बोली : ‘अरी हाँ !
तू ऐसा कर सकेगी कहाँ ?
छोड़ेंगे नहीं तुझे पाकर
तेरे प्रियतम दिवाकर ॥’
बोली पद्मिनी : ‘ छाएगी जब घटा घनघोर
प्रियतम निहारेंगे नहीं मेरी ओर ।
विपत्ति में बिताकर कुछ दिवस
संसार-व्रत उद्यापन करूँगी बस ॥
मेरे प्रियतम
मेघ-पटल भेदने अक्षम ।
दुःख झेलते हैं ये
लोक-कल्याण के लिये ॥
प्रियतम का प्यार अनुराग भोग
कहाँ कर पाऊँगी अधिक दिन तक ?
नहीं मेरा सौभाग्य योग ।
करती रहूँगी अनुक्षण
उनके चरणों का स्मरण,
मुझे वरण कर ले जाएगा अन्तक ॥
इस जनम में कुछ दिन दुःख सहूँगी
तो अवश्य कर पाऊँगी
अगले जनम में दर्शन
प्रियतम का प्यारा वदन ॥’
यह वचन जब सीता के ज्ञान-श्रवण में पहुँचा,
मान उसे जीवन का आदर्श ऊँचा
बोलीं सती :
‘पद्मिनि ! तू साधवी है री !
तुझे अवश्य दीखती
सरणी पुण्यभरी ।
मेरे विचार में मैं तेरी भगिनी हूँ,
उसके ऊपर फिर भाग्य-भागिनी हूँ ॥
तेरी तरह पाया वन में पति का प्रणय,
भवन में सुख निर्मल अमृतमय ।
दिवस-नाथ सूरज हैं
तेरे प्रियतम स्वयम् ।
उनके वंशज हैं
पृथिवीनाथ मेरे प्रियतम ॥
कहती जो अपने भविष्य की अवस्था,
पहले से ही मुझे प्राप्त है वही पन्था ।
धन्य तेरा हृदय महान्,
तू सति ! धन्य धन्य है री !
कर ले प्रदान
मेरे जीवन में शुद्ध-मति तेरी ॥
लोकापवाद से दुःखित-मन
मेरे प्रियतम ने
मुझे त्याग दिया ।
बोल दिव्य-दर्शने !
पर-काल में स्वामी के दर्शन
भाग्य मेरा कर पाएगा क्या ?’
शीतल कमल-पंखुरियों के नीचे बस
घन-श्यामल-हृदय सरसी-जल में सरस
मध्याह्न चक्रवाक-दम्पति ने बिताया
और राजहंस ने संग ले अपनी जाया ॥
कारण्डव-कवल से बचकर झींगा
अम्बुज-वन में लम्बी छलांग लगा
छत्र-विशाल पत्र-वन में रास्ता भूल अपना
अन्त में बगुले का आहार बना ॥
उद्दण्ड अरविन्द-पंखुरियों के अन्दर
गिरी शफरी नीर में लम्फ दे रही ।
कुमुदिनी के बंकिम नाल पर
बैठने से पूर्व ही
फुदक रहा मण्डुक
डुण्डुभ के भय से दुकदुक ॥
आम्र-शाखा पर सविषाद बैठ कोयल
काक-नीड़ के पास
पत्रों में छुप विह्वल,
झेल सारी प्यास
पञ्चम स्वर में वहीं
श्रवणामृत बरसाती थी नहीं ।
छुप गयी थी जैसे
चाण्डाल के भय से ॥
अपनी पूँछ पसार
बुलबुल किसी प्रकार
पूँछ-छोर में रंगीन पर
नहीं नचा रही उधर ॥
पंख हिलाकर
देख अपना सोदर
वह थी क्रुद्ध नहीं होती,
पुकारती नहीं दे चुनौती ।
आहार ही उसे लड़वाता,
अन्यथा भ्राता किसका शत्रु बन जाता ?
पीन-अपघन
परिपूर्ण-उदर
बैठी थी वह प्रसन्न-मन
विशाल शाल-पादप-डाल पर ॥
बैठकर मधुक-जंगल में
मधुक फल काट भोजन-छल में
द्विज-स्वभाव से शुकगण
सूक्ष्म-पञ्जिकानुसार उसी समय
भावी वृष्टि-लक्षण
कर रहे थे निर्णय ॥
तमसा-तट पर वटवृक्ष-तल
गहन पत्र-छाया से था सुशीतल,
जहाँ कुटज-सुरभित कुटीर में अनायास
ग्रीष्म लेता शान्ति-चरणों में आश्वास ॥
वहाँ समासीन वाल्मीकि मुनिवर
खोल अपने ज्ञान-लोचन
दर्शन कर रहे पावन रामायण ।
कहीं कहीं तापसगण
रहे अध्ययन-तत्पर,
कहीं कोई वेद-गान में मगन ॥
गुरु गर्भ-भार से आलसी-काया
तापसी-समुदाय-परिवृत श्रीराम-जाया
घने कुञ्ज-वन में
बैठ पत्रासन
स्थिर नयन में
करतीं शान्ति सेवन ।
जैसे परिधि-मण्डित चन्द्र-मण्डली
पूर्णिमा की बिदाई पर अस्ताचल को चली ।
सती के पाण्डुर कपोल-परिसर के घर्म-पटल
शिशिर सदृश, हिम नेत्र-जल ॥
तापसियों के बीच रहकर श्रीराम-पत्नी
लंका-राक्षसी वृत्ति लाकर स्मृति में अपनी
कर रहीं भावना :
‘भाव तापसियों का कितना स्वर्गीय,
फिर राक्षसियों का भाव नारकीय
कुत्सित कितना ॥’
पवन-देव की दी बधाई,
जब मानस में आई
वीर पवन-कुमार की याद ।
सादर तालवृन्त व्यजन झल
देवी ने पाया सुशीतल
ऊर्मि का प्रसाद ॥
उसी समय समक्ष आ चिन्ता-सुन्दरी
बोली वाणी विनयभरी :
‘देवीजी ! कुछ लोग द्वार पधारे
प्यासे हैं दर्शन पाने तुम्हारे ।
यात्रा कर चुके राह बहुत लम्बी ।
धन्य वह दर्शन-कामना
प्रखर आतप से नहीं दबी ।
बन जाता हृदय अपना
अपार प्रीति का भण्डार
उनके कमनीय रूप निहार ॥’
बोलीं देवी : ‘सखी मेरी !
ले आओ उन्हें न कर देरी ।
भाग्य मेरा धन्य,
मुझ पर इतने आदर हैं अनन्य ।
अवश्य पाप-ताप मिटा देंगे मेरे नयन
पाकर उनके दर्शन ॥’
देवी की आज्ञा मान
पहले आकर
एक् ने मधुर मुस्कान
धीरे बिखराकर,
कई दिनों से परिचित बन्धु समान
कहा प्यारी बातों में अमृत सान ॥
‘देवीजी ! स्मृति में है क्या घटना पिछली ?
किया था पदार्पण
तुमने मेरे घर ।
पाई है मेरी काया ने उसी क्षण
तुम्हारी तनु-ज्योति से सुन्दर
यह स्वर्गीय प्रभा की सम्पदा उजली ॥
मेरे निर्झर उस प्रभा के व्याज
आनन्द-विभोर झर्झर बहते आज ।
प्रफुल्ल-वदन पुष्प-समुदाय हास्य निखार
नन्दन-कानन का करते तिरस्कार ॥
सरिता-सलिल महकाकर सदा सुगन्ध मन्द
तटवासियों के मन में जगाता आनन्द ।
तुम्हारे प्यार-पले मयूर सारे
उच्च स्वर नित्य गाते गुण तुम्हारे ॥
प्रतिक्षण वारिद आकर बारी-बारी से
अटल अभिलाषा रख तुम्हारे दर्शन की,
ढूँढते घूम-घूम दरी-दरी से
‘कहाँ है सुन्दरी जानकी ।’
पूछते मुझसे गंभीर स्वर में सभी,
‘नहीं है’ उत्तर से मानते नहीं कभी ।
ले उजाला बिजली का खोजते पुनर्वार
‘निश्चित है सीता सुन्दरी’ यही विचार ॥
देवीजी ! आज पहचाना क्या
इस हतभाग्य को तुमने ?
बहुत दिनों बाद आया
तुम्हारे सामने ।
तुम्हारी चरण-धूलि से सुन्दर
अपना मुकुट सजाकर
बन चुका हूँ भाग्यवान्
मैं चित्रकूट सानुमान् ॥’
तदुपरान्त पधारी एक शुभांगी रंगीली नयी
विमल-समुज्ज्वल-कान्तिमयी,
प्रखर-आतप-ताप-दर्पहारिणी,
वन-सुन्दरी की चिर-सहचारिणी ।
गिरिमल्लिका-माला से कण्ठ है सज्जित हुआ,
ललाट पर रमणीय शिरोमणि महुआ ।
जम्बु-नीलरत्न कर्णाभरण,
शुक्ति-पङ्क्ति जिसका कटि-भूषण ।
वनवासी मुनिजनों का अन्तःकरण मोहती,
सुन्दर कुटिल नील वेणी से सुहावनी लगती ॥
प्रफुल्ल प्रसन्न-वदन
उसने व्यक्त किया प्रत्यक्ष,
सुकुमार धीर मधुर वचन
सती के समक्ष :
‘अयि सुशीले !
कृतज्ञता मेरी स्वीकार ले सादर,
तेरे स्नेह-ऋण से ऋणी हूँ निरन्तर ।
ऋण कहाँ चुका पाऊंगी ? नहीं मेरी शक्ति,
मुझे कृतार्थ कर, सति !
आन्तरिक भक्ति मेरी ले ॥
दुनिया में मेरे जैसे हैं नहीं कितने ?
इतनी कृपा तेरी पाई है कहाँ किसने ?
पाकर तेरी शुभ दृष्टि पावनी,
मेरी बालुका है स्वर्ण-रेणु बनी ।
क्रीड़ा से रम गये जब दिव्य नयन तेरे
तूने हीरा-क्षेत्र बना दिया वक्षस्थल को मेरे । [१]
विद्यमान नगेन्द्र-नन्दिनी श्रीविष्णुपदी,
फिर भी तेरी प्रदत्त उपाधि से मैं हूँ ‘महानदी’ ॥’
आई निर्मल-कलेवरा गोदावरी
वदन में विषाद की छाया है भरी ।
अश्रु बहाकर व्याकुल-मन
पोँछ-पोँछ आँचल से सरोज-नयन,
समुज्ज्वल रंगों से रञ्जित कई
विचित्र चित्र अपने संग थी लाई ।
सती की अनुज्ञा लेकर शीघ्र ही
खोल स्तर-स्तर दिखाने लगी वही ॥
कहीं पुष्प-पुञ्ज झड़कर लतागण से
सड़ रहे मार्त्तण्ड की प्रचण्ड किरण से ।
शुष्क पत्र-शय्या पर पतित
कई वृक्ष हैं मलिन-वेश प्रभा-रहित ॥
एक टूटी शाखा किसकी
उस तरु का अंग छोड़ न सकी ।
तृणराशि की शरण चाहती चूम किसीका सिर,
किसीके पैर पकड़ फिर ॥
खग-पुरीषों से पूरित पत्र
शुक्ल कर रहे किसीका तन ।
ले ऊर्णनाभ-जाल रूप मलिन वस्त्र
आनन्द खो चुका कोई ढँक अपना आनन ॥
बक-विक्रम देख कई भेक बारबार
छलांग लगा झेल रहे क्लेश अपार ।
कुछ तो पाषाण-तल में छुपकर
चुपचाप बैठ भर रहे उदर ॥
कहीं वन्य महिष-दल अधीर
पंकिल कर रहे सरोवर का नीर ।
क्षिप्त हो रहे कर्दम से सने कुछ कमल
महिषों के पैरों से चञ्चल ॥
कहीं अजगर ले आहार-लालसा
नीर के पास पड़ा है काष्ठ-सा ।
उसके समीप मृगों का मार्ग निहार अनुकूल,
छुप-छुप अधर-प्रान्त लेहन करता शार्दूल ॥
फिर दृश्य हुआ प्रबल दावानल
धूमान्धकार से घिर वनस्थल ।
असंख्य-शाखावाली प्रचण्ड
अग्नि-शिखाएँ लिपटती
और खण्ड-खण्ड
गगन में जा रहीं मिलती ॥
ज्वलित पत्र सब अम्बर में उठकर
धूम-वाहन में चल रहे ।
दूर वृक्षों पर बैठ सुनाकर खबर
अतिशय ताप से जल रहे ॥
कुछ मुरझाये पत्र ऊर्ध्व मार्ग चल
अम्बर में हो रहे ओझल ।
पलायन-रत हैं विहंगम गगन में उड्डीन,
कुछ तो अग्नि-गर्भ में हो रहे विलीन ॥
मृग, महिष, मातंग,
शशक, शूकर,
भल्लुकों के संग
दल-दल शृगाल,
धूम-पुञ्ज से ग्रस्त होकर
अग्नि की ओर दृष्टि डाल
कान्दिशीक हैं समस्त
अत्यन्त विकल त्रस्त ॥
उधर अनेक वानर
भीत चकित-मन
छलांग लगा वृक्षों पर
कर रहे पलायन ॥
कुछ अपने शावकों को पीठ में रखकर,
कुछ अपने कक्ष में पकड़ जोर
दौड़ रहे धूम के भीतर
सरिता की ओर ।
सरिता के सैकत स्रोत से पुलिन पर्यन्त
भर गये हैं जन्तुकुल व्याकुल अत्यन्त ॥
बोली गोदावरी :
‘देखी तूने, वत्से जानकी !
तेरी बिदाई के बाद दशा दुःखभरी,
दण्डका-वन की ?’
बोलीं पर-दुःख-कातर सती :
‘हा हा ! दण्डका !
मेरे केलि-निधान !
लेकर जल मेरे नयन-युगल का
दैव तुरन्त करे तेरी शान्ति विधान,
तो मैं अपने को धन्य समझती ॥’
तदुपरान्त आ
मिलकर अयोध्या
सती के सामने
शोक-गद्गद दुःख-विकृत स्वन में,
कम्पित-अधर लज्जा-विनत वचन में
लगी राजलक्ष्मी का पत्र पाठ करने ॥
‘सखि ! मैं रजनी,
तू थी चाँदनी ।
मेरे प्रफुल्ल नयन-कुमुद मूँद
बिदाई तूने ले ली ।
तेरे बिना, अरी प्यारी !
और नहीं मेरे सुख की एक भी बूँद ।
बन गई है तेरी यह सहेली
जैसे आभरण-शून्या नारी ॥
आज राजभवन
बन गया है वन ।
तेरा विरह-दावानल उधर
सब नष्ट कर चुका समाकर भीतर ।
फिर बची है क्या
पूर्व सौन्दर्य-विलास-चर्या ?
जल चुके उल्लास-पल्लव-बहुल
विशाल साधु-हृदय-पादप-कुल ।
सुहास-सुरभित प्रसून समस्त
ओह ! अनायास वहाँ हो चुके विध्वस्त ॥
शान्ति-हरिणी-दल
साथ धीरज-गज सकल
विषाद-धूम से व्याकुल-जीवन
जाकर उदर में तितिक्षा-सरिता के
अपना अपना तन
आकण्ठ डुबा चुके ॥
खल-हृदय बलवान् श्वापद वहीं,
उस विपत्ति ने उन्हें भी छोड़ा नहीं ।
केवल श्रीरघुवर के
हृदय-सागर के
अथाह गर्भ में गहन,
वह बन गया है बड़वा-दहन ॥
जैसे राहु-कवलित कलेवर कलाकर का,
तेरे बिना बाकी है केवल आकार नरेश्वर का ।
मणिमय भवन में
छा गया है अन्धकार,
तारा-पूरित गगन में
अम्बुद जिस प्रकार ॥
बैठी हैं श्वश्रूगण विदीर्ण-हृदया
जैसे पुष्करिणी शुष्क-तोया ।
मणि जैसे सर्पिणी की प्राण-सम्पत्ति,
उससे अधिक तुझे वे मानतीं सम्प्रति ॥
बन्द हो चुके
द्वार प्रमद-वन के ।
किसकी दृष्टि में फिर आयेगी सुमन ?
पतित पुष्प-राशि को उधर
सुखा रहे मुस्तक समस्त उठकर
गन्ध-वणिक् बन ॥
शुष्क हो रहे लता-वृक्ष-निकर
तेरी स्मृति में दुःख-विह्वल मन ।
संगमर्मर-निर्मित मनोरम मार्ग पर
शुष्क पत्रों ने बनाये हैं आसन ॥
प्रभु की बात मान सभी देवर
विनत-शीश हैं विषादित-अन्तर ।
उरग जैसे मन्त्र से हीन-बल
या निशित अंकुश से शंकित दन्तावल ॥
भगिनियों के कपोल-परिसर
निर्भर कर रहे कर-सरोज पर ।
दिनों दिन तन उनके हो रहे कृश
कृष्णपक्ष के ऋक्षपति सदृश ॥
मृदंग-मुख छुए बिना संगीत-संगिनियाँ
बैठी हैं अपने आप गूंगी वहाँ ।
जी रही हैं व्यथा ले गहरी
बासी सुमन-सी दासियाँ तेरी ॥’
पत्र-पाठ -समाप्ति के पूर्व ही अयोध्या
बैठ गयी मलिन-रूपसी अधैर्या ।
दशा उसकी देखते ही
करुणामयी वैदेही
विवश हो गयीं अपने आप
पाकर अत्यन्त क्षोभ सन्ताप ॥
आ गया दिवस का अवसान अभी,
अपने निवास लौट चले अतिथि सभी ।
तापसियाँ सती को सप्रेम संग लेकर
हो गयीं अपने अपने कार्यों में तत्पर ॥
* * * * *
[पादटीका :
(१) सम्बलपुर के पास महानदी-गर्भ में ‘हीराकुद’ नाम का एक क्षुद्र द्वीप है । यहाँ हीरा मिलने की जनश्रुति है ।
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(तपस्विनी काव्य का अष्टम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *
Hindi Tapasvini Book :
Link :
http://hkmeher.blogspot.in/2011/08/complete-hindi-tapasvini-kavya.html
* * *
‘Tapasvini’ Mahakavya of Poet Gangadhar Meher (1862-1924).
* * *
‘Tapasvini’ Mahakavya of Poet Gangadhar Meher (1862-1924).
From Original Odia, Translated into Hindi, English and Sanskrit :
Complete Works : Link :
* * * * * Translated Works of Dr. Harekrishna Meher :
http://hkmeher.blogspot.in/2016/08/translated-works-of-dr-harekrishna-meher.html
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Sunday, November 20, 2011
‘तपस्विनी’ काव्य नवम सर्ग/ हरेकृष्ण मेहेर (Hindi Tapasvini Kavya, Canto-9)
TAPASVINI
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
*
[Canto-9 has been taken from pages 163- 179 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya' .
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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Tapasvini [Canto-9]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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नवम सर्ग
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सती का गर्भ-भार
धीरे-धीरे समयानुसार
हो चला गुरुतम
करके गुरुतर-भाव अतिक्रम ।
बैठ गयीं तो दुष्कर लगा उठना,
उठने से दुर्वह लगा शरीर अपना ॥
सती को इसी समय कष्ट होगा जान
वर्षा ने कर डाला ग्रीष्म का अवसान ।
श्रान्त प्राणों में शक्ति प्रदान करने
चतुर्दिशाओं में घिर उठे बादल घने ॥
ऊर्ध्व दिशा में सबने रोक सूर्यातप प्रबल
तान दिया अम्बर में चन्द्रातप श्यामल ।
चन्द्रातप-द्युति ने शम्पा-छटा से उसी क्षण
चकाचौंध कर दिये जनों के ईक्षण ॥
दिशांगनाओं ने नील वेणियाँ सँवार
खचित की बक-मोतीमाला उन पर ।
दिक्पालों ने सजा दिये सुन्दर बन्दनवार
रत्नाकर से रत्न-रेणु उठाकर ॥
पूर्व-दिगीश इन्द्र स्वार्थपर समुत्सुक
लज्जा त्याग बोले : ‘वह मेरा कार्मुक ।’
पश्चिम-दिक्पति रत्नाकर-अधीश्वर
बोले असहिष्णु होकर :
‘मेरे रत्नों से रचित वही
रहेगा मेरे समीप ही ॥’
अन्य दिक्पालों ने साधु धर्म मान
बारी का कर दिया समाधान,
उन दोनों के लिये पास अपने अपने
धनुष की स्थापना करने ॥
पुत्री-दुःख-सन्तप्ता रसा के सिर पर उस पल
वर्षा ने बरसाया जल सुशीतल ।
सरिता, सरोवर,
कानन, भूधर
सभी के सिर पर किया नीर सिञ्चन
स्वयं निष्पक्ष बन ॥
तृण-शस्यांकुर और कदम्ब-विकास रूपक
सञ्चरित हुआ धरित्री का पुलक ।
नीर से भरपूर
हो गया वसुधा का उर ॥
उभय तट उछल तमसा लगी चलने ;
सीता को आसन्न-प्रसवा निहार
मानो खुशियाँ लगीं उछलने
सभी के हृदय में अपार ॥
महीधर कानन सकल
छोड़ हृदय का अनल,
मलने लगे अपना अपना तन,
प्रफुल्ल हो उठे सारे वदन ॥
कण्टक-दुर्ग-वासिनी केतकी
होकर भी कण्टक-कलेवरा,
जैसे कहने लगी मधुर मुस्कान बिखरा :
‘ विपत्ति-विपिन में बँधी जानकी !
चिन्ता न करना अपने मन में ।
कण्टक-कानन में कण्टकिता मैं स्वयम्,
फिर भी वन्दिता हूँ सारे भुवन में
वितरण कर सौरभ मनोरम ॥
तापसी-वन में बनकर तपस्विनी धन्या
मनस्विनी ! तुम होगी विश्व-मान्या ।
लोगों की आँखें
जितना भी दूषण देखें,
वह क्या करेगा भला ?
अपना गुण जब दिव्यालंकार उजला ॥
कण्टक देखकर
यदि मधुकर
न दिखलाये मुझ पर अनुराग,
क्या सौरभ की स्पर्धा दूंगी त्याग ?‘
रमणीय कृष्णचूड़ा-पुष्प ने
प्रफुल्ल सौम्य वेश दिखला अपने
प्रलोभित किये सरस
दर्शकों के नयन मानस ॥
गजदन्त-पुष्प ने वसन्त समय से ठहर
वर्षा को दी सुमनों की खबर ।
कमल, मल्लिका और कुटज की कथा
उधर हुई अति प्रीतिदायिनी सर्वथा ॥
वर्षा ने उन्हें रत्न मानकर
किये बहुत यत्न प्रतिवासर ।
परन्तु कौन कर सकता अतिक्रम
विधाता का नियम ?
वर्षा कर न सकी
अपनी शक्ति से रक्षा उनकी ।
विनाश हुआ तीनों का
आया जब काल का झोंका ।
सती को चला पता यहीं,
आजीवन साधु उपेक्षित होता नहीं ॥
पुष्पालंकारों से सांवत्सरिक उत्सव मनाया
जूही लताओं ने मिलकर सकल ।
मानो सती का मानस बहलाने बनाया
वही सुगन्ध-महल ॥
अम्बुद-नीलाम्बरा श्रावणी विभावरी
हस्त-मस्तक में ले यूथिका रजनीगन्धा महकभरी,
सती-कुटीर के प्रांगण में खड़ी होकर
व्यथा मिटाने थी उजागर ॥
जानकी का प्रसव-लक्षण
प्रकाशित होने लगा आ प्रतिक्षण ।
सती का क्लेश लेकर
अदूर में अत्यन्त आर्त्त स्वर
दर्दूर सब रो पड़े
विकल हो बड़े ॥
चातक ने लेकर सती की तृषा
अम्बर में बारम्बार की वारिद से वारि-भिक्षा ।
वृद्धा तापसियाँ सती के समीप रहकर
समयोचित विधान में हुई थीं तत्पर ॥
निशा में निशामणि-कान्ति-हारक
सम्भूत हुए सती के यमज बालक ।
कुमारों की ज्योति ने मिल सौदामिनी के संग
दश दिशाओं में बिखरा दी आलोक-तरंग ॥
तोप गर्जन किया सानन्द पुरन्दर ने ;
न जाननेवाले लगे उसे ‘वज्र’ कहने ।
दिशांगनाओं की हुलहुलि-ध्वनि सहित
मिल गया मस्ती से मेघों का स्तनित ॥
सारे पर्वत कानन
बरसाने लगे सुमन ।
केदार, नदी, सरोवर
सब हो गये नृत्य-तत्पर ॥
कुमारों के दर्शनाभिलाषी घन
उतर आये नीचे धारा-रूप बन ।
पुलिनों के ऊपर उछल
चलने लगीं चञ्चल
सारी सरिताएँ उत्कण्ठित-मानसा
हृदय में भर दर्शन की लालसा ॥
मत्स्यगण त्याग सागर का अंग
लगे नृत्य करने तरंगिणी संग ।
झील-सरोवर-क्षेत्रों के अन्दर
उठ सलिल के ऊपर
सानन्द-मन कई मीन
हुए नृत्य में तल्लीन ॥
दर्शनेच्छुक ‘केउँ’ मछली
अतिशय उछलकर
सबके आगे चली
चढ़ ताल-तरु के शिखर ॥
महर्षि वाल्मीकि ने सत्वर पधार
सन्दर्शन किये युगल कुमार ।
सोचा उन्होंने साग्रह,
‘वृहस्पति शुक्र दोनों ग्रह
एक साथ चल
आश्रम-अम्बर में आये निकल ॥’
महर्षि का प्रभात-सा हृदय
आनन्द-पुष्पों से हो गया सौरभमय ।
कुश-गुच्छ लिये
हाथ में अपने,
अग्र पश्चात् द्विखण्ड किये
मन्त्रोच्चार सहित मुनिवर ने ॥
अनुकम्पा के हाथ सौंप बोले तपोधन :
‘देवी ! करो कुमारों का सम्मार्जन ।
कलेवर मार्जन करो अग्र खण्ड से अग्रज का
और निम्न खण्ड से अनुज का ॥’
अनुकम्पा ने किया सम्पन्न
जानकी-तनुजों का सम्मार्जन
मुनीश्वर के आदेश अनुसार,
भूतनाशिनी रक्षा उसी प्रकार ॥
कुश-लव के प्रयोग से सम्मार्जित अंग युगल (१)
शाणित रत्नों से भी हुए अधिक समुज्ज्वल,
जैसे तृण-युक्त वैश्वानर,
या सागर-तरंग-मुक्त नवल दिवाकर ॥
जब वैदेही लगीं निहारने
कुमारों के युगल आनन,
हुआ हृदय में अपने
सुख-दुःख का एक साथ आगमन ॥
सुख बोला : ‘गर्भ में अपने
धारण किये थे जिसने
सूर्य-चन्द्रोपम युगल कुमार,
धन्य वही जननी, धन्य शत बार ।
इससे अधिक सौभाग्य कहीं
संसार में दूसरा नहीं ॥’
दुःख बोला : ‘आज दोनों राजकुँवर
मणिमय भवन में लगते कितने सुन्दर ।
नरेन्द्र-हृदय में अपार आनन्द जगाते,
दीन दुःखियों की दरिद्रता दूर भगाते ॥
प्राप्त करते आज नगरवासीगण
कितने धन रत्न वस्त्र आभरण ।
मंगल नादों से भरा होता नगर,
मंगल वाद्यों से गूँज रहा होता अम्बर ।
ओह ! भाग्य-दोष से बन तापस-तनय
तापसों के आश्रम में लिया आश्रय ॥’
सती-नयनों से लेकर
सलिल दो धार,
दुःख चला गया सत्वर
देकर पुत्रों का प्यार ॥
निहार कुमारों के रूप उभय,
शुद्ध सुखमय हो गया सती का हृदय ।
उनका मन तभी
लगा नहीं तनिक-भी
चलाने अपने नेत्र
पुत्रों को छोड़ अन्यत्र ॥
मातृ-नेत्रज-स्नेह-समुज्ज्वल रंग
कुमारों के युगल अंग
रंगकर बारबार,
लाया उन नयनों में प्रतीति इस प्रकार,
मानो हैं उदीयमान
नवल हिमांशु और अंशुमान् ।
मानस में कर सिंहासन की स्थापना
दरशाया आनन्द ने सार्वभौमत्व अपना ॥
सहर्ष अनुकम्पा ने किया सम्पादन
शीघ्र कुमारों का नाभिच्छेदन ।
तदुपरान्त ले मन्त्र-पूत जल
अवगाहन कराके निभाये विधान सकल ॥
करने लगीं कोलाहल
निहार कुमार युगल
तापसियाँ आनन्द-गद्गद स्वर ।
रहे मुनिपुत्रगण पङ्क्तिबद्ध नृत्य-तत्पर
साथ-साथ करके संकीर्त्तन
श्रीराम-नाम पावन ॥
दुर्धर्ष दुर्जन लवणासुर का करने निधन,
वीरवर शत्रुघन
रहे थे प्रस्थान-पथ पर उसी रात
पावन वाल्मीकि-आश्रम में दैवात् ॥
आश्रम के उस आनन्द-नाद में
रमकर रिपुसूदन
स्वयं आनन्द-नद में
हो गये मगन ॥
अत्यन्त प्रफुल्ल-अन्तर
उन्होंने प्रशंसा कर
जानकी से कहा :
‘मातः ! आप हैं रघुवंश में पावनी,
सर्वंसहा आपकी जननी ।
इसी कारण आप भी स्वयं सर्वंसहा ॥
वसुमती-नन्दिनि ! आपने
वसु रखा था गर्भ में अपने ।
हमारा सौभाग्य महान् ।
किया रघुकुल को आज जो वसु प्रदान,
विराजेगा वह विभास्वर
अयोध्या-राजलक्ष्मी के मस्तक पर ॥’
मुनिकुमारों के आनन्द-कोलहल में उधर
सम्मिलित हो गये सारे विहंग,
दल-बद्ध होकर
कुरंगों के संग ॥
एक पल-सी बीत गयी विभावरी
श्रावणी वर्षिणी भयंकरी ।
लवण के प्रति सुमित्रा-पुत्र हुए अग्रसर
मुनि-चरणों में नमन पूर्वक सादर ॥
तापस-तापसियों को द्रव्य से करने प्रसन्न
लगा स्वभाव से सती का मन ।
परन्तु सती का वहाँ
इच्छानुरूप धन कहाँ ?
उन्होंने तो स्वयम्
आश्रय कर लिया है वनाश्रम ॥
चाहती चाँदनी विश्वभर
तृप्ति प्रदान करने,
परन्तु हाय ! गगन पर
छा गये बादल घने ॥
जब आईं जानकी
अपने भवन से,
मन में भावना थी उनकी
शीघ्र लौट चलेंगी वन से ।
मुनिकन्याओं के लिये लायी थीं उपायन
कुछ आभूषण और वसन ।
तापस-तापसियों के मन में सन्तोष लायीं सीता
उन्हें बाँटकर लज्जावश विनीता ॥
उन सबका हृदय-पारावार
करने लगा विस्तार
परम प्रसन्नता की लहर,
उन्हें चन्द्रकिरण-जैसे पाकर ॥
थे सती ने सञ्चित किये
जितने फल और नीवार,
सब बण्टन कर दिये
खग-मृगों को आहार ॥
खींचतान कर परस्पर
भक्षण किया सबने ।
चञ्चू से पकड़ तत्पर
कुछ विहंग लगे उड़ने ॥
सारिका-शावक नीड़ में अपने
बैठे थे खोल वदन,
सस्नेह उन्हें उनकी माता ने
कर दिया आहार बण्टन ॥
सहर्षनाद मयूरियों के संग मोर
हो गये वृक्षों पर अत्यन्त नृत्य-विभोर ।
कोकिल ने घूम द्वीप-द्वीपान्तर
प्रचार कर दी वह शुभ खबर ॥
कैलास को देने वही मंगल समाचार
चला राजहंस आनन्द-नाद पसार ।
रखा था गौरी को दिलाने विश्वास
मृणाल-किसलय का पत्र अपने पास ॥
समाचार से हृदय में भर उल्लास अत्यन्त,
शिवजी से करके निवेदन,
छोड़ अपना कैलास-सदन
सती के हाथों पूजा-प्राप्ति की अभिलाषिणी
गौरी षष्ठीदेवी-रूपिणी,
अम्बर में कादम्बिनी के संग विराज
जलद-ज्योति के व्याज,
पहुँच गयीं वाल्मीकि-आश्रम पर तुरन्त ॥
सप्त तापस-कन्याओं के कलेवर में
विराज सप्त-मातृका समान,
वर-भुजा गौरी ने षष्ठ वासर में
सती-हस्त की अर्चना स्वीकार सादर
समस्त अरिष्ट विनष्ट कर,
यमज पुत्रों को किया सिंह-बल प्रदान ॥
हुआ क्रम से दिवस उपनीत
नामकरण का अवसर पुनीत ।
कुमारों के नाम श्रवण के प्यासे
स्वर्गपुर त्याग उधर पधारे देवगण ।
देवियों ने उस उत्सुकता से
किया दलबद्ध होकर उनका अनुसरण ॥
शरत् काल के शुभागमन हेतु उधर
मार्ग छोड़ रहा था अम्बर में अम्बुधर ।
उस मार्ग पर सब रवि-तेज के सहित
अनायास चले ज्योतिर्मय स्यन्दन में विराजित ॥
आश्रम में पहुँच तब
सुमन-समूह में महक बन
अत्यन्त मन-मोहन,
बस गये सब
स्वर्गीय सुन्दरता बिखराकर
विकास के बहाने मुस्कुराकर ।
तापस-तापसियों के हृदय के भीतर
कुछ समा गये आनन्दमय होकर ॥
पाकर महर्षि वाल्मीकि का निदेश
द्विगुण आनन्दित-मन
तापस-तापसियों ने सत्वर
उपवन में करके प्रवेश,
लाकर कई नव पल्लव सुमन
की मण्डप रचना मनोहर ॥
निशीथिनी के प्रथम प्रहर में उधर
लगा अतिशय सुन्दर
आश्रम चित्ताकर्षक,
प्रज्वलित प्रदीप-मालाओं से ।
प्रचुर ऐंगुद तैल समस्त दीपक
लूट रहे थे तापसों के हाथों से ॥
चहुँदिशाओं में कुसुमित तरु-वल्लरियाँ
खिलखिला रही थीं पाकर रश्मि की ऊर्मियाँ ।
था वही समय सुमनों का त्योहार
चक्रवर्त्तिनी का बढ़ रहा था गर्व-भार ॥
समुद्रों में जैसे क्षीर-पारावार,
वृन्दारकों में पुरन्दर जिस प्रकार,
जैसे हिमगिरि के तुंग शृंगों में गौरीशंकर,
वैसे वाल्मीकि तपस्वी महान्
विराजे मुनियों में शोभायमान
मण्डप में आसन बिछाकर ॥
संग लेतीं युगल अश्विनीकुमार
छाया और संज्ञा जिस प्रकार,
वैसे कर-कमलों से थाम
यमज कुमार अभिराम
पधारीं मण्डप में सती और अनुकम्पा ।
आविर्भूत हुई शोभा वहीं सदर्पा ॥
कृष्ण-त्रयोदशी-शशी के पास निकली
भा रही नभ में
प्रभाती तारका ।
मानो खड़ी है प्राची मतवाली,
सरोवर-गर्भ में
धारण कर प्रतिबिम्ब उनका ॥
सीता की सहचरियाँ
प्रसन्न-मुख सरल-हृदया तापस-कुमारियाँ
सती-प्रदत्त वसनों से सुशोभना,
आवृत कर कलेवर अपना अपना
अतिशय प्रमुदित-अन्तर
बैठ गयीं सती के समीप उधर ।
प्राप्त कर उषा-प्रदत्त नयी किरण उज्ज्वल,
जैसे उषा के पास सरोजिनी सकल ॥
देवार्चना हुई सम्पन्न
वैदिक विधि के अनुसार,
हुआ मंगल शंख-स्वन
और तूर्यनाद का विस्तार ॥
ज्येष्ठ पुत्र को शुभाशीष देकर
बोले प्रसन्न-मन मुनिकुल-शेखर :
‘कुशाग्र-मार्जित इसका नाम होगा ‘कुश’,
बनेगा बैरी-वारणेन्द्र-गण का अंकुश ।’
महामनीषी मुनीश ने उसी प्रकार अभिनव
कनिष्ठ पुत्र का नाम रखा ‘लव’ ॥
राम-नाम उच्चारण किया मुनियों ने
बजाकर संग-संग
मन्दिरा, खञ्जनी और मृदंग ।
तापस-नन्दिनियों ने
वीणा बजाकर मांगलिक
गाये गीत सुधा से भी मधुर अधिक ॥
सुरभि-रूप धारण कर
समस्त अमरी अमर
हो गये वहाँ नृत्य-मगन
अपार आनन्दित-मन ।
चतुर्दिशाओं में स्थित मृग-मृगीगण
निहार रहे विस्मितेक्षण ॥
आश्रम के आनन्द-कोलाहल में वनभूमी ने
योगदान किया प्रतिध्वनि के बहाने ।
वल्ली पादप सभी मानो संगीत-तत्पर
हो गये विद्याधर-विद्याधरियों का गर्व अपनाकर ॥
आनन्द से जगमगा उठा आश्रम,
परन्तु सती के वदन-कुमुद में तम
राम-चन्द्र ही के बिना छा गया ।
उनका पर्व तो था अमावस्या ।
अन्धकार ने बढ़ाया गौरव उन्हींका,
अन्धकार के कारण ही आदर है चाँदनी का ॥
सती के नन्दन-रत्नद्वय सुन्दर
हुए उधर दृश्यमान,
रत्न-सानु के गभीर कन्दर
जैसे शोभायमान ॥
ऋषि-देवों ने मिल मनाकर आनन्द त्योहार
किया सती का गौरव विस्तार ।
स्वाभाविक रीति यह महाजन की,
सुपात्र को सम्मान देने में प्रीति उनकी ॥
अन्त में कुमारों के प्रति
कल्याण-कामना के बाद
प्रदान किया महामति
मुनिवर ने शुभाशीर्वाद ॥
तापसों के हृदय-कमल में आसन बसाकर
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे समस्त अमर ।
गंभीर नाद में वन-पादप-लतिका सकल
‘तथास्तु’ कहने लगे आनन्द-विह्वल ।
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे सुस्वर
दिशा-विदिशाओं से सारे दिगीश्वर ॥
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[पादटीका :
(१) कुश = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का अग्र खण्ड ।
लव = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का निम्न खण्ड । ]
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(तपस्विनी काव्य का नवम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
* * * * *
Original Oriya Epic Poem
By : Poet Gangadhara Meher (1862-1924)
Complete Hindi Translation by : Dr. Harekrishna Meher
*
[Canto-9 has been taken from pages 163- 179 of my Hindi ‘Tapasvini’ Book
Published by : Sambalpur University, Jyoti Vihar, Sambalpur, Orissa, First Edition : 2000.]
For Introduction, please see : ‘ Tapasvini : Ek Parichaya' .
Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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Tapasvini [Canto-9]
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‘तपस्विनी’ महाकाव्य
मूल ओड़िआ रचना : स्वभावकवि गंगाधर मेहेर (१८६२-१९२४)
सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर
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नवम सर्ग
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सती का गर्भ-भार
धीरे-धीरे समयानुसार
हो चला गुरुतम
करके गुरुतर-भाव अतिक्रम ।
बैठ गयीं तो दुष्कर लगा उठना,
उठने से दुर्वह लगा शरीर अपना ॥
सती को इसी समय कष्ट होगा जान
वर्षा ने कर डाला ग्रीष्म का अवसान ।
श्रान्त प्राणों में शक्ति प्रदान करने
चतुर्दिशाओं में घिर उठे बादल घने ॥
ऊर्ध्व दिशा में सबने रोक सूर्यातप प्रबल
तान दिया अम्बर में चन्द्रातप श्यामल ।
चन्द्रातप-द्युति ने शम्पा-छटा से उसी क्षण
चकाचौंध कर दिये जनों के ईक्षण ॥
दिशांगनाओं ने नील वेणियाँ सँवार
खचित की बक-मोतीमाला उन पर ।
दिक्पालों ने सजा दिये सुन्दर बन्दनवार
रत्नाकर से रत्न-रेणु उठाकर ॥
पूर्व-दिगीश इन्द्र स्वार्थपर समुत्सुक
लज्जा त्याग बोले : ‘वह मेरा कार्मुक ।’
पश्चिम-दिक्पति रत्नाकर-अधीश्वर
बोले असहिष्णु होकर :
‘मेरे रत्नों से रचित वही
रहेगा मेरे समीप ही ॥’
अन्य दिक्पालों ने साधु धर्म मान
बारी का कर दिया समाधान,
उन दोनों के लिये पास अपने अपने
धनुष की स्थापना करने ॥
पुत्री-दुःख-सन्तप्ता रसा के सिर पर उस पल
वर्षा ने बरसाया जल सुशीतल ।
सरिता, सरोवर,
कानन, भूधर
सभी के सिर पर किया नीर सिञ्चन
स्वयं निष्पक्ष बन ॥
तृण-शस्यांकुर और कदम्ब-विकास रूपक
सञ्चरित हुआ धरित्री का पुलक ।
नीर से भरपूर
हो गया वसुधा का उर ॥
उभय तट उछल तमसा लगी चलने ;
सीता को आसन्न-प्रसवा निहार
मानो खुशियाँ लगीं उछलने
सभी के हृदय में अपार ॥
महीधर कानन सकल
छोड़ हृदय का अनल,
मलने लगे अपना अपना तन,
प्रफुल्ल हो उठे सारे वदन ॥
कण्टक-दुर्ग-वासिनी केतकी
होकर भी कण्टक-कलेवरा,
जैसे कहने लगी मधुर मुस्कान बिखरा :
‘ विपत्ति-विपिन में बँधी जानकी !
चिन्ता न करना अपने मन में ।
कण्टक-कानन में कण्टकिता मैं स्वयम्,
फिर भी वन्दिता हूँ सारे भुवन में
वितरण कर सौरभ मनोरम ॥
तापसी-वन में बनकर तपस्विनी धन्या
मनस्विनी ! तुम होगी विश्व-मान्या ।
लोगों की आँखें
जितना भी दूषण देखें,
वह क्या करेगा भला ?
अपना गुण जब दिव्यालंकार उजला ॥
कण्टक देखकर
यदि मधुकर
न दिखलाये मुझ पर अनुराग,
क्या सौरभ की स्पर्धा दूंगी त्याग ?‘
रमणीय कृष्णचूड़ा-पुष्प ने
प्रफुल्ल सौम्य वेश दिखला अपने
प्रलोभित किये सरस
दर्शकों के नयन मानस ॥
गजदन्त-पुष्प ने वसन्त समय से ठहर
वर्षा को दी सुमनों की खबर ।
कमल, मल्लिका और कुटज की कथा
उधर हुई अति प्रीतिदायिनी सर्वथा ॥
वर्षा ने उन्हें रत्न मानकर
किये बहुत यत्न प्रतिवासर ।
परन्तु कौन कर सकता अतिक्रम
विधाता का नियम ?
वर्षा कर न सकी
अपनी शक्ति से रक्षा उनकी ।
विनाश हुआ तीनों का
आया जब काल का झोंका ।
सती को चला पता यहीं,
आजीवन साधु उपेक्षित होता नहीं ॥
पुष्पालंकारों से सांवत्सरिक उत्सव मनाया
जूही लताओं ने मिलकर सकल ।
मानो सती का मानस बहलाने बनाया
वही सुगन्ध-महल ॥
अम्बुद-नीलाम्बरा श्रावणी विभावरी
हस्त-मस्तक में ले यूथिका रजनीगन्धा महकभरी,
सती-कुटीर के प्रांगण में खड़ी होकर
व्यथा मिटाने थी उजागर ॥
जानकी का प्रसव-लक्षण
प्रकाशित होने लगा आ प्रतिक्षण ।
सती का क्लेश लेकर
अदूर में अत्यन्त आर्त्त स्वर
दर्दूर सब रो पड़े
विकल हो बड़े ॥
चातक ने लेकर सती की तृषा
अम्बर में बारम्बार की वारिद से वारि-भिक्षा ।
वृद्धा तापसियाँ सती के समीप रहकर
समयोचित विधान में हुई थीं तत्पर ॥
निशा में निशामणि-कान्ति-हारक
सम्भूत हुए सती के यमज बालक ।
कुमारों की ज्योति ने मिल सौदामिनी के संग
दश दिशाओं में बिखरा दी आलोक-तरंग ॥
तोप गर्जन किया सानन्द पुरन्दर ने ;
न जाननेवाले लगे उसे ‘वज्र’ कहने ।
दिशांगनाओं की हुलहुलि-ध्वनि सहित
मिल गया मस्ती से मेघों का स्तनित ॥
सारे पर्वत कानन
बरसाने लगे सुमन ।
केदार, नदी, सरोवर
सब हो गये नृत्य-तत्पर ॥
कुमारों के दर्शनाभिलाषी घन
उतर आये नीचे धारा-रूप बन ।
पुलिनों के ऊपर उछल
चलने लगीं चञ्चल
सारी सरिताएँ उत्कण्ठित-मानसा
हृदय में भर दर्शन की लालसा ॥
मत्स्यगण त्याग सागर का अंग
लगे नृत्य करने तरंगिणी संग ।
झील-सरोवर-क्षेत्रों के अन्दर
उठ सलिल के ऊपर
सानन्द-मन कई मीन
हुए नृत्य में तल्लीन ॥
दर्शनेच्छुक ‘केउँ’ मछली
अतिशय उछलकर
सबके आगे चली
चढ़ ताल-तरु के शिखर ॥
महर्षि वाल्मीकि ने सत्वर पधार
सन्दर्शन किये युगल कुमार ।
सोचा उन्होंने साग्रह,
‘वृहस्पति शुक्र दोनों ग्रह
एक साथ चल
आश्रम-अम्बर में आये निकल ॥’
महर्षि का प्रभात-सा हृदय
आनन्द-पुष्पों से हो गया सौरभमय ।
कुश-गुच्छ लिये
हाथ में अपने,
अग्र पश्चात् द्विखण्ड किये
मन्त्रोच्चार सहित मुनिवर ने ॥
अनुकम्पा के हाथ सौंप बोले तपोधन :
‘देवी ! करो कुमारों का सम्मार्जन ।
कलेवर मार्जन करो अग्र खण्ड से अग्रज का
और निम्न खण्ड से अनुज का ॥’
अनुकम्पा ने किया सम्पन्न
जानकी-तनुजों का सम्मार्जन
मुनीश्वर के आदेश अनुसार,
भूतनाशिनी रक्षा उसी प्रकार ॥
कुश-लव के प्रयोग से सम्मार्जित अंग युगल (१)
शाणित रत्नों से भी हुए अधिक समुज्ज्वल,
जैसे तृण-युक्त वैश्वानर,
या सागर-तरंग-मुक्त नवल दिवाकर ॥
जब वैदेही लगीं निहारने
कुमारों के युगल आनन,
हुआ हृदय में अपने
सुख-दुःख का एक साथ आगमन ॥
सुख बोला : ‘गर्भ में अपने
धारण किये थे जिसने
सूर्य-चन्द्रोपम युगल कुमार,
धन्य वही जननी, धन्य शत बार ।
इससे अधिक सौभाग्य कहीं
संसार में दूसरा नहीं ॥’
दुःख बोला : ‘आज दोनों राजकुँवर
मणिमय भवन में लगते कितने सुन्दर ।
नरेन्द्र-हृदय में अपार आनन्द जगाते,
दीन दुःखियों की दरिद्रता दूर भगाते ॥
प्राप्त करते आज नगरवासीगण
कितने धन रत्न वस्त्र आभरण ।
मंगल नादों से भरा होता नगर,
मंगल वाद्यों से गूँज रहा होता अम्बर ।
ओह ! भाग्य-दोष से बन तापस-तनय
तापसों के आश्रम में लिया आश्रय ॥’
सती-नयनों से लेकर
सलिल दो धार,
दुःख चला गया सत्वर
देकर पुत्रों का प्यार ॥
निहार कुमारों के रूप उभय,
शुद्ध सुखमय हो गया सती का हृदय ।
उनका मन तभी
लगा नहीं तनिक-भी
चलाने अपने नेत्र
पुत्रों को छोड़ अन्यत्र ॥
मातृ-नेत्रज-स्नेह-समुज्ज्वल रंग
कुमारों के युगल अंग
रंगकर बारबार,
लाया उन नयनों में प्रतीति इस प्रकार,
मानो हैं उदीयमान
नवल हिमांशु और अंशुमान् ।
मानस में कर सिंहासन की स्थापना
दरशाया आनन्द ने सार्वभौमत्व अपना ॥
सहर्ष अनुकम्पा ने किया सम्पादन
शीघ्र कुमारों का नाभिच्छेदन ।
तदुपरान्त ले मन्त्र-पूत जल
अवगाहन कराके निभाये विधान सकल ॥
करने लगीं कोलाहल
निहार कुमार युगल
तापसियाँ आनन्द-गद्गद स्वर ।
रहे मुनिपुत्रगण पङ्क्तिबद्ध नृत्य-तत्पर
साथ-साथ करके संकीर्त्तन
श्रीराम-नाम पावन ॥
दुर्धर्ष दुर्जन लवणासुर का करने निधन,
वीरवर शत्रुघन
रहे थे प्रस्थान-पथ पर उसी रात
पावन वाल्मीकि-आश्रम में दैवात् ॥
आश्रम के उस आनन्द-नाद में
रमकर रिपुसूदन
स्वयं आनन्द-नद में
हो गये मगन ॥
अत्यन्त प्रफुल्ल-अन्तर
उन्होंने प्रशंसा कर
जानकी से कहा :
‘मातः ! आप हैं रघुवंश में पावनी,
सर्वंसहा आपकी जननी ।
इसी कारण आप भी स्वयं सर्वंसहा ॥
वसुमती-नन्दिनि ! आपने
वसु रखा था गर्भ में अपने ।
हमारा सौभाग्य महान् ।
किया रघुकुल को आज जो वसु प्रदान,
विराजेगा वह विभास्वर
अयोध्या-राजलक्ष्मी के मस्तक पर ॥’
मुनिकुमारों के आनन्द-कोलहल में उधर
सम्मिलित हो गये सारे विहंग,
दल-बद्ध होकर
कुरंगों के संग ॥
एक पल-सी बीत गयी विभावरी
श्रावणी वर्षिणी भयंकरी ।
लवण के प्रति सुमित्रा-पुत्र हुए अग्रसर
मुनि-चरणों में नमन पूर्वक सादर ॥
तापस-तापसियों को द्रव्य से करने प्रसन्न
लगा स्वभाव से सती का मन ।
परन्तु सती का वहाँ
इच्छानुरूप धन कहाँ ?
उन्होंने तो स्वयम्
आश्रय कर लिया है वनाश्रम ॥
चाहती चाँदनी विश्वभर
तृप्ति प्रदान करने,
परन्तु हाय ! गगन पर
छा गये बादल घने ॥
जब आईं जानकी
अपने भवन से,
मन में भावना थी उनकी
शीघ्र लौट चलेंगी वन से ।
मुनिकन्याओं के लिये लायी थीं उपायन
कुछ आभूषण और वसन ।
तापस-तापसियों के मन में सन्तोष लायीं सीता
उन्हें बाँटकर लज्जावश विनीता ॥
उन सबका हृदय-पारावार
करने लगा विस्तार
परम प्रसन्नता की लहर,
उन्हें चन्द्रकिरण-जैसे पाकर ॥
थे सती ने सञ्चित किये
जितने फल और नीवार,
सब बण्टन कर दिये
खग-मृगों को आहार ॥
खींचतान कर परस्पर
भक्षण किया सबने ।
चञ्चू से पकड़ तत्पर
कुछ विहंग लगे उड़ने ॥
सारिका-शावक नीड़ में अपने
बैठे थे खोल वदन,
सस्नेह उन्हें उनकी माता ने
कर दिया आहार बण्टन ॥
सहर्षनाद मयूरियों के संग मोर
हो गये वृक्षों पर अत्यन्त नृत्य-विभोर ।
कोकिल ने घूम द्वीप-द्वीपान्तर
प्रचार कर दी वह शुभ खबर ॥
कैलास को देने वही मंगल समाचार
चला राजहंस आनन्द-नाद पसार ।
रखा था गौरी को दिलाने विश्वास
मृणाल-किसलय का पत्र अपने पास ॥
समाचार से हृदय में भर उल्लास अत्यन्त,
शिवजी से करके निवेदन,
छोड़ अपना कैलास-सदन
सती के हाथों पूजा-प्राप्ति की अभिलाषिणी
गौरी षष्ठीदेवी-रूपिणी,
अम्बर में कादम्बिनी के संग विराज
जलद-ज्योति के व्याज,
पहुँच गयीं वाल्मीकि-आश्रम पर तुरन्त ॥
सप्त तापस-कन्याओं के कलेवर में
विराज सप्त-मातृका समान,
वर-भुजा गौरी ने षष्ठ वासर में
सती-हस्त की अर्चना स्वीकार सादर
समस्त अरिष्ट विनष्ट कर,
यमज पुत्रों को किया सिंह-बल प्रदान ॥
हुआ क्रम से दिवस उपनीत
नामकरण का अवसर पुनीत ।
कुमारों के नाम श्रवण के प्यासे
स्वर्गपुर त्याग उधर पधारे देवगण ।
देवियों ने उस उत्सुकता से
किया दलबद्ध होकर उनका अनुसरण ॥
शरत् काल के शुभागमन हेतु उधर
मार्ग छोड़ रहा था अम्बर में अम्बुधर ।
उस मार्ग पर सब रवि-तेज के सहित
अनायास चले ज्योतिर्मय स्यन्दन में विराजित ॥
आश्रम में पहुँच तब
सुमन-समूह में महक बन
अत्यन्त मन-मोहन,
बस गये सब
स्वर्गीय सुन्दरता बिखराकर
विकास के बहाने मुस्कुराकर ।
तापस-तापसियों के हृदय के भीतर
कुछ समा गये आनन्दमय होकर ॥
पाकर महर्षि वाल्मीकि का निदेश
द्विगुण आनन्दित-मन
तापस-तापसियों ने सत्वर
उपवन में करके प्रवेश,
लाकर कई नव पल्लव सुमन
की मण्डप रचना मनोहर ॥
निशीथिनी के प्रथम प्रहर में उधर
लगा अतिशय सुन्दर
आश्रम चित्ताकर्षक,
प्रज्वलित प्रदीप-मालाओं से ।
प्रचुर ऐंगुद तैल समस्त दीपक
लूट रहे थे तापसों के हाथों से ॥
चहुँदिशाओं में कुसुमित तरु-वल्लरियाँ
खिलखिला रही थीं पाकर रश्मि की ऊर्मियाँ ।
था वही समय सुमनों का त्योहार
चक्रवर्त्तिनी का बढ़ रहा था गर्व-भार ॥
समुद्रों में जैसे क्षीर-पारावार,
वृन्दारकों में पुरन्दर जिस प्रकार,
जैसे हिमगिरि के तुंग शृंगों में गौरीशंकर,
वैसे वाल्मीकि तपस्वी महान्
विराजे मुनियों में शोभायमान
मण्डप में आसन बिछाकर ॥
संग लेतीं युगल अश्विनीकुमार
छाया और संज्ञा जिस प्रकार,
वैसे कर-कमलों से थाम
यमज कुमार अभिराम
पधारीं मण्डप में सती और अनुकम्पा ।
आविर्भूत हुई शोभा वहीं सदर्पा ॥
कृष्ण-त्रयोदशी-शशी के पास निकली
भा रही नभ में
प्रभाती तारका ।
मानो खड़ी है प्राची मतवाली,
सरोवर-गर्भ में
धारण कर प्रतिबिम्ब उनका ॥
सीता की सहचरियाँ
प्रसन्न-मुख सरल-हृदया तापस-कुमारियाँ
सती-प्रदत्त वसनों से सुशोभना,
आवृत कर कलेवर अपना अपना
अतिशय प्रमुदित-अन्तर
बैठ गयीं सती के समीप उधर ।
प्राप्त कर उषा-प्रदत्त नयी किरण उज्ज्वल,
जैसे उषा के पास सरोजिनी सकल ॥
देवार्चना हुई सम्पन्न
वैदिक विधि के अनुसार,
हुआ मंगल शंख-स्वन
और तूर्यनाद का विस्तार ॥
ज्येष्ठ पुत्र को शुभाशीष देकर
बोले प्रसन्न-मन मुनिकुल-शेखर :
‘कुशाग्र-मार्जित इसका नाम होगा ‘कुश’,
बनेगा बैरी-वारणेन्द्र-गण का अंकुश ।’
महामनीषी मुनीश ने उसी प्रकार अभिनव
कनिष्ठ पुत्र का नाम रखा ‘लव’ ॥
राम-नाम उच्चारण किया मुनियों ने
बजाकर संग-संग
मन्दिरा, खञ्जनी और मृदंग ।
तापस-नन्दिनियों ने
वीणा बजाकर मांगलिक
गाये गीत सुधा से भी मधुर अधिक ॥
सुरभि-रूप धारण कर
समस्त अमरी अमर
हो गये वहाँ नृत्य-मगन
अपार आनन्दित-मन ।
चतुर्दिशाओं में स्थित मृग-मृगीगण
निहार रहे विस्मितेक्षण ॥
आश्रम के आनन्द-कोलाहल में वनभूमी ने
योगदान किया प्रतिध्वनि के बहाने ।
वल्ली पादप सभी मानो संगीत-तत्पर
हो गये विद्याधर-विद्याधरियों का गर्व अपनाकर ॥
आनन्द से जगमगा उठा आश्रम,
परन्तु सती के वदन-कुमुद में तम
राम-चन्द्र ही के बिना छा गया ।
उनका पर्व तो था अमावस्या ।
अन्धकार ने बढ़ाया गौरव उन्हींका,
अन्धकार के कारण ही आदर है चाँदनी का ॥
सती के नन्दन-रत्नद्वय सुन्दर
हुए उधर दृश्यमान,
रत्न-सानु के गभीर कन्दर
जैसे शोभायमान ॥
ऋषि-देवों ने मिल मनाकर आनन्द त्योहार
किया सती का गौरव विस्तार ।
स्वाभाविक रीति यह महाजन की,
सुपात्र को सम्मान देने में प्रीति उनकी ॥
अन्त में कुमारों के प्रति
कल्याण-कामना के बाद
प्रदान किया महामति
मुनिवर ने शुभाशीर्वाद ॥
तापसों के हृदय-कमल में आसन बसाकर
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे समस्त अमर ।
गंभीर नाद में वन-पादप-लतिका सकल
‘तथास्तु’ कहने लगे आनन्द-विह्वल ।
‘तथास्तु’ उच्चारने लगे सुस्वर
दिशा-विदिशाओं से सारे दिगीश्वर ॥
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[पादटीका :
(१) कुश = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का अग्र खण्ड ।
लव = द्वि-खण्डित कुशगुच्छ का निम्न खण्ड । ]
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(तपस्विनी काव्य का नवम सर्ग समाप्त)
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[ सौजन्य :
स्वभावकवि-गंगाधर-मेहेर-प्रणीत "तपस्विनी".
हिन्दी अनुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर.
प्रकाशक : सम्बलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, सम्बलपुर, ओड़िशा, भारत.
प्रथम संस्करण २००० ख्रीष्टाब्द.]
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Sunday, November 13, 2011
Poet Gańgādhara Meher's Tapasvinī Kāvya : A Glimpse/ HKMeher
Poet Gańgādhara Meher's Tapasvinī Kāvya : A Glimpse
(From the Pen of Dr. Harekrishna Meher)
* * * * *
(Poet Gańgādhara Meher)
Original Oriya :
(Tapasvini, Canto-IV, ‘Mańgaļe Ailā Ushā’) मङ्गळे अइला उषा : http://hkmeher.blogspot.com/2007/08/oriya-kavya-tapasvini-of-swabhava-kavi.html
*
English Translation :
(‘Auspiciously came Ushā’ ) :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/tapasvini-canto-iv.html
*
Hindi Translation :
(‘Samańgal Āī Sundarī Praphulla-Nīraj-Nayanā Ushā’ )
समंगल आई सुन्दरी प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/hindi-version-of-tapasvini-kavya.html
*
Sanskrit Translation :
(‘Mańgalam Samāgatā Saumyāńganā Ushā Vyākoshāravinda-Locanā’ )
मङ्गलं समागता सौम्याङ्गना उषा व्याकोषारविन्द-लोचना :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/sanskrit-version-of-tapasvini-kavya.html
*
Sanskrit Article (संस्कृत-तपस्विनी-काव्यम् : एकमालोकनम्) : http://hkmeher.blogspot.com/2011/07/gangadhara-mehers-tapasvini-sanskrit.html
*
Research Article (‘Tapasvinī of Gańgādhara Meher : A Critical Observation') :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/08/tapasvini-of-gangadhara-meher-critical.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/english-tapasvini-kavya-tapasvini.html
*
Blog Reaction : ‘Musepaper’ : ‘Poet Gańgādhara is influenced by Bhavabhūti’ :
http://themusepaper.blogspot.com/2008/07/poet-gangdhara-is-influenced-by.html
*
PoemHunter :
(Auspicious Dawn): http://www.poemhunter.com/poem/auspicious-dawn/
(Duty of a King) : http://www.poemhunter.com/poem/duty-of-a-king/
Conjugal Love of Sītā and Rāma :
http://www.poemhunter.com/poem/conjugal-love-of-sita-and-rama/
http://hkmeher.blogspot.com/2008/05/tapasvini-kavya-conjugal-love-of-sita.html
*
River Tamasā (Poet’s Philosophy of Life) :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/river-tamasa-tapasvini-poets-philosophy.html
*
Rāma’s Coronation in the Vision of Sītā :
http://www.poemhunter.com/poem/rama-s-coronation-in-the-vision-of-sita/ *
http://hkmeher.blogspot.com/2009/07/ramas-coronation-in-vision-of-sita.html
*
'Muse India' (Literary e-journal in English) Issue 21 / Sept.- Oct. 2008
(Extracts from English Translations of Tapasvini) :
http://museindia.com/viewarticle.asp?myr=2008&issid=21&id=1258
*
On My English Book "Tapasvini of Gangadhara Meher", Literary Appreciation
by Dr. Mahendra Kumar Mishra ('Muse India' Issue- 37, May-June 2011.
Ref : http://www.museindia.com/focuscontent.asp?issid=34&id=2292
*
'Srijangatha' (e-magazine in Hindi) /Gangadhar Meher Ki Do Kavitaayen :
सृजनगाथा / गंगाधर मेहेर की दो कवितायें :
http://www.srijangatha.com/?pagename=Bhashantar2_May2K9
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Srijanagaathaa / स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर : एक अमर प्रतिभा : http://www.srijangatha.com/?pagename=Hastakshar_Jun2k9
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Tapasvinī : Ek Parichaya ( Article Taken from My Hindi ‘ Tapasvinī ’ Book ) : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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The Ambrosial ['Amrutamaya' : Mu Ta Amruta-Sāgara-Bindu.] http://hkmeher.blogspot.com/2008/08/ambrosial-amrutamaya-of-gangadhara.html
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Kaavyaalaya : http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/amritmay.stm
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Complete English ‘TAPASVINI’ Kavya :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/complete-english-tapasvini.html
http://hkmeher.blogspot.com/2011/10/tapasvini-kavya-complete-english.html
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Complete Hindi Tapasvinī Kāvya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/complete-hindi-tapasvini-kavya.html
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Articles on My Hindi-English-Sanskrit Translations of Tapasvinī Kāvya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/my-hindi-english-sanskrit-articles-on.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/blog-post.html
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(From the Pen of Dr. Harekrishna Meher)
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(Poet Gańgādhara Meher)
Gańgādhara Meher, popularly known as ‘Swabhāva-Kavi’ is one of the illustrious makers of Indian literature. In the galaxy of poets of Oriya literature, he is a scintillating star of first magnitude. Coming on 9 August 1862, Śrāvaņa Pūrņimā (Rākshī Bandhan), the day of full illumination, at Barpali in the then Sambalpur district of Orissa, his mortal form disappeared in the murky veil of Chaitra Amāvāsyā on 4 April 1924.
Literary compositions of Gańgādhara Meher comprise several kāvyas, essays, autobiography and numerous lyrics : devotional, patriotic, satirical and reformative. His main works are Tapasvinī, Pranaya-Vallarī, Kichaka-Vadha, Indumatī, Utkala-Lakshmī, Ayodhyā-Druśya, Kavitā-Kalloļa, Arghya-Thāļī, Ahalyā-Stava, Mahimā, Bhāratī-Bhāvanā, Kavitāmāļā, Padminī and Krushaka-Sańgīta. “Gańgādhara Granthāvalī”, the compilation of all his writings, has earned high appreciations through several publications.Like Kālidāsa in Sanskrit and William Wordsworth in English, Gańgādhara Meher is regarded as ‘Prakriti-Kavi’, Poet of Nature, in Oriya literature. He sees and shows the entire universe ever-beautiful, nectareous and imbued with ambrosia.
'Tapasvinī’, an eleven-canto Oriya epic poem, is the magnum opus and a great classic of this illustrious poet. With the prevailing sentiment of Pathos, this kāvya depicts the post-banishment episode of Sītā in the hermitage of Sage Vālmīki. In this Rāmāyaņa-based literary composition, the poetic presentation is well- embellished with originality and significant innovations.
Sītā, the daughter of Earth and the devoted wife of King Rāma, in her later life appears as a ‘Tapasvinī’, A Woman practising penance or An Ascetic- maid, in the pen of Gańgādhara Meher. This epic poem reveals the ambition of the poet to portray the brilliant character of a devoted wife steeped in Indian culture in the domain of literature. With vivid and prominent delineation of Sītā’s life-deeds, Tapasvinī kāvya may be construed as a ‘Sītāyana’ in the field of Indian Literature.
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For wide popularization and comparative correspondence, I have completely translated ‘Tapasvinī’ into English, Hindi and Sanskrit.*From among these tri-lingual translations, Hindi Rendering Book "TAPASVINI" has been published by Sambalpur University, Jyoti Vihar, Burla, Orissa, in 2000.
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My English Book entitled "TAPASVINI OF GANGADHARA MEHER" (Complete English Translation, ISBN : 81-87661-63-1. First Edition : 2009, Pages- 220) has been published by : R.N. Bhattacharya (Book Publishers & Exporters), A-217, H.B. Town, Road No.4, Sodepur, Kolkata- 700110, India.
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Tapasvini : Ref: (International Circulation) :
http://hkmeher.blogspot.com/2010/06/ref-to-english-book-tapasvini-of.html http://hkmeher.blogspot.com/2009/08/english-version-book-of-oriya-tapasvini.html
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References of ‘Tapasvini’ can be seen on these sites :
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My English Book entitled "TAPASVINI OF GANGADHARA MEHER" (Complete English Translation, ISBN : 81-87661-63-1. First Edition : 2009, Pages- 220) has been published by : R.N. Bhattacharya (Book Publishers & Exporters), A-217, H.B. Town, Road No.4, Sodepur, Kolkata- 700110, India.
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Tapasvini : Ref: (International Circulation) :
http://hkmeher.blogspot.com/2010/06/ref-to-english-book-tapasvini-of.html http://hkmeher.blogspot.com/2009/08/english-version-book-of-oriya-tapasvini.html
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References of ‘Tapasvini’ can be seen on these sites :
Original Oriya :
(Tapasvini, Canto-IV, ‘Mańgaļe Ailā Ushā’) मङ्गळे अइला उषा : http://hkmeher.blogspot.com/2007/08/oriya-kavya-tapasvini-of-swabhava-kavi.html
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English Translation :
(‘Auspiciously came Ushā’ ) :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/tapasvini-canto-iv.html
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Hindi Translation :
(‘Samańgal Āī Sundarī Praphulla-Nīraj-Nayanā Ushā’ )
समंगल आई सुन्दरी प्रफुल्ल-नीरज-नयना उषा :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/hindi-version-of-tapasvini-kavya.html
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Sanskrit Translation :
(‘Mańgalam Samāgatā Saumyāńganā Ushā Vyākoshāravinda-Locanā’ )
मङ्गलं समागता सौम्याङ्गना उषा व्याकोषारविन्द-लोचना :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/07/sanskrit-version-of-tapasvini-kavya.html
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Sanskrit Article (संस्कृत-तपस्विनी-काव्यम् : एकमालोकनम्) : http://hkmeher.blogspot.com/2011/07/gangadhara-mehers-tapasvini-sanskrit.html
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Research Article (‘Tapasvinī of Gańgādhara Meher : A Critical Observation') :
http://hkmeher.blogspot.com/2007/08/tapasvini-of-gangadhara-meher-critical.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/english-tapasvini-kavya-tapasvini.html
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Blog Reaction : ‘Musepaper’ : ‘Poet Gańgādhara is influenced by Bhavabhūti’ :
http://themusepaper.blogspot.com/2008/07/poet-gangdhara-is-influenced-by.html
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PoemHunter :
(Auspicious Dawn): http://www.poemhunter.com/poem/auspicious-dawn/
(Duty of a King) : http://www.poemhunter.com/poem/duty-of-a-king/
Conjugal Love of Sītā and Rāma :
http://www.poemhunter.com/poem/conjugal-love-of-sita-and-rama/
http://hkmeher.blogspot.com/2008/05/tapasvini-kavya-conjugal-love-of-sita.html
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River Tamasā (Poet’s Philosophy of Life) :
http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/river-tamasa-tapasvini-poets-philosophy.html
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Rāma’s Coronation in the Vision of Sītā :
http://www.poemhunter.com/poem/rama-s-coronation-in-the-vision-of-sita/ *
http://hkmeher.blogspot.com/2009/07/ramas-coronation-in-vision-of-sita.html
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'Muse India' (Literary e-journal in English) Issue 21 / Sept.- Oct. 2008
(Extracts from English Translations of Tapasvini) :
http://museindia.com/viewarticle.asp?myr=2008&issid=21&id=1258
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On My English Book "Tapasvini of Gangadhara Meher", Literary Appreciation
by Dr. Mahendra Kumar Mishra ('Muse India' Issue- 37, May-June 2011.
Ref : http://www.museindia.com/focuscontent.asp?issid=34&id=2292
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'Srijangatha' (e-magazine in Hindi) /Gangadhar Meher Ki Do Kavitaayen :
सृजनगाथा / गंगाधर मेहेर की दो कवितायें :
http://www.srijangatha.com/?pagename=Bhashantar2_May2K9
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Srijanagaathaa / स्वभावकवि गङ्गाधर मेहेर : एक अमर प्रतिभा : http://www.srijangatha.com/?pagename=Hastakshar_Jun2k9
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Tapasvinī : Ek Parichaya ( Article Taken from My Hindi ‘ Tapasvinī ’ Book ) : http://hkmeher.blogspot.com/2008/07/tapasvini-ek-parichaya-harekrishna_27.html
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The Ambrosial ['Amrutamaya' : Mu Ta Amruta-Sāgara-Bindu.] http://hkmeher.blogspot.com/2008/08/ambrosial-amrutamaya-of-gangadhara.html
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Kaavyaalaya : http://www.manaskriti.com/kaavyaalaya/amritmay.stm
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Complete English ‘TAPASVINI’ Kavya :
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/10/complete-english-tapasvini.html
http://hkmeher.blogspot.com/2011/10/tapasvini-kavya-complete-english.html
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Complete Hindi Tapasvinī Kāvya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/complete-hindi-tapasvini-kavya.html
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Articles on My Hindi-English-Sanskrit Translations of Tapasvinī Kāvya :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/08/my-hindi-english-sanskrit-articles-on.html
http://tapasvini-kavya.blogspot.com/2011/08/blog-post.html
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